दुनिया बदल रहा हूं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
दुनिया बदल रहा हूंखुद को ही छल रहा हूं।
डरने लगा हूं इतना
छुप कर के चल रहा हूं।
चलती हवा भी ठण्डी
फिर भी मैं जल रहा हूं।
क्यों आज ढूंढते हो
गुज़रा मैं कल रहा हूं।
अब थाम लो मुझे तुम
कब से फिसल रहा हूं।
लावा दबा हुआ है
ऐसे उबल रहा हूं।
"तनहा" वहां किसी दिन
मैं भी चार पल रहा हूं।
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