अक्तूबर 30, 2012

POST : 205 आत्म मंथन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

   आत्म मंथन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

जाने कैसा था वो जहां
जाने कैसे थे वो लोग
बेगाने लगते थे अपने
अपनों में था बेगानापन ।

हर पल चाहत पाने की
कदम कदम खोने का डर
आकांक्षाओं आपेक्षाओं का
लगा रहता था हरदम मेला
लेकिन भीड़ में रह कर भी
हर कोई होता था अकेला ।

झूठ छल फरेब मुझको 
हर तरफ आता था नज़र
औरों से लगता था कभी
कभी खुद से लगता था डर ।

किसी मृगतृष्णा के पीछे
शायद सभी थे भाग रहे
भटकते रहते दिन भर को
रातों को सब थे जाग रहे ।
 
अब जब खुद को पाया है
चैन तब रूह को आया है
नहीं कोई भी मदहोशी है
छाई बस इक ख़ामोशी है ।

छोड़ उस झूठे जहां को
अब हूं अपने ही संग मैं
अब नहीं कर पाएगा कभी
मुझे मुझ से अलग कोई
सब कुछ मिल गया मुझे
पा लिया है खुद को आज ।
 

 

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