नये चलन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
छोड़ गये डूबने वाले का हाथलोग सब कितने समझदार हैं
हैं यही बाज़ार के दस्तूर अब
जो बिक गये वही खरीदार हैं ।
जीते भी, मरते भी उसूलों पर थे
न जाने होते वो कैसे इंसान थे
उधर मोड़ लेते हैं कश्ती का रुख
जिधर को हवा के अब आसार हैं ।
किया है वादा, निभाना भी होगा
कभी रही होंगी ऐसी रस्में पुरानी
साथ जीने और मरने की कसमें
आजकल लगती सबको बेकार हैं ।
लोग अजब ,अजब सा शहर है
देखते हैं सुनते हैं बोलते नहीं हैं
सही हुआ, गलत हुआ, सोचकर
न होते कभी भी खुद शर्मसार हैं ।
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