बंधन मुक्त ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
खोने के लिए जबकुछ नहीं बचा
सता रहा है फिर डर
किस बात का।
रही नहीं जब तमन्ना
कुछ भी पाने की
होना है जब मुक्त
सभी बंधनों से
घबराता है फिर क्यों मन।
अपने ही बुने
सारे बंधनों को छोड़
जीवन के अंतिम छोर पर
करना है जतन बचे हुए पल
इस तरह से जीने का
मिल पाए जिसमें मुझे भी आनंद
खुली हवा में सांस लेने का।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें