क्या सच क्या झूठ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
प्रचार ज़रूरी है। हर कोई प्रचार का भूखा है। क्या क्या नहीं करते लोग प्रचार पाने के लिए। यहां तक कि कभी लोग ऐसा भी कह देते हैं कि बदनाम हुए तो क्या नाम तो हुआ। नेताओं को प्रचार की भूख पागलपन तक होती है। सत्ता मिलते ही राज्य भर में इनकी तस्वीरें सब जगह नज़र आने लगती हैं। लगता है लोगों का मानना है कि बिना प्रचार कोई उन्हें याद नहीं रखेगा। तभी सब नेता जनता का पैसा अपने बाप दादा की समाधियां बनाने पर बर्बाद करते हैं जबकि जनता को उसकी ज़रूरत अपने जीने की ज़रूरतों के लिए होती है। नेताओं के लिए देश की जनता कभी महत्वपूर्ण रही नहीं है। कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि अगर भगवान के मंदिर सब कहीं न बने होते तो शायद लोग उसपर विश्वास ही न करते।एक लेखक का मानना है कि अगर रामायण राम के भक्त ने न लिखी होती और लिखने वाला रावण को नायक बना कर लिखता तो हम आज रावण को बुराई का प्रतीक न समझते। रावण ने अपनी बहिन की नाक काटने वाले से बदला लिया था। इस बारे क्या किसी ने विचार किया है कि अग्निपरीक्षा लेने के बाद भी राम ने अपनी पत्नी सीता को बिना कारण महलों से निष्कासित कर वन में भेज दिया , क्यों ?
कहीं ये राजा का न्याय न हो कर एक पुरुषवादी सोच तो नहीं थी।
रामायण लिखने वाले ने इस पर क्यों कुछ नहीं लिखा कि जो धर्म पत्नी आपके साथ चौदह वर्ष बनवास में रहे ,आपको भी अवसर आने पर उसके साथ वन में जाना चाहिए था। मगर कोई धर्म हमें सोचने सवाल करने की इजाज़त नहीं देता। विशेष बात ये है कि जब भी जो किसी का प्रचार करता है , उसको महान बनाने को तब उसके विचारों और आदर्शों की नहीं नाम -छवि का ही प्रचार किया जाता है। इसका ही अंजाम है कि हम प्रतिमाओं के सामने नतमस्तक होते हैं , आचरण को अपनाना कभी ज़रूरी नहीं समझते। बड़े बड़े लोगों का प्रचार कितना सच्चा है और कितना झूठा कौन जाने ।
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