फ़लसफ़ा ज़िंदगी का हमें सिखाने लगे हैं ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
फलसफा ज़िंदगी का हमें सिखाने लगे हैंअब छुपा आंसुओं को वो मुस्कराने लगे हैं ।
जान पाये नहीं जो कभी हमारी वफ़ा को
बात दिल की कहां वो जुबां पे लाने लगे हैं ।
मिल गया खेत को बेच कर ये गर्दोगुबार
हर कहीं इस तरह कितने कारखाने लगे हैं ।
आपकी इस बज़्म में हमीं नहीं बिनबुलाये
और कुछ लोग अक्सर यहां पे आने लगे हैं ।
अब नहीं काम करती दवा न कोई दुआ ही
लोग "तनहा" यहां ज़हर खुद ही खाने लगे हैं ।
1 टिप्पणी:
कारखाने लगे...waahh
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