तुम मिरे ग़म में शामिल नहीं हो ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया
तुम मिरे ग़म में शामिल नहीं होइक तुम्हीं मुझ को हासिल नहीं हो।
जान कुर्बान की जिस ने तुम पर
कैसे तुम उसके कातिल नहीं हो।
जो कहे आईना , मान लेंगे
तुम मुहब्बत के काबिल नहीं हो।
जान पाओगे तुम खुद को क्योंकर
खुद ही अपने मुक़ाबिल नहीं हो।
दिल पे गुज़रती है जो बेरुखी से
उस से तुम भी तो गाफ़िल नहीं हो।
बेमुरव्वत हो ऊपर से लेकिन
सच कहो साहिबे-दिल नहीं हो।
तुम ज़रा अपने दिल से ये पूछो
मेरी कश्ती के साहिल नहीं हो।
देख कर तुमको ये सोचता हूं
क्या तुम्हीं मेरी मंज़िल नहीं हो।
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