तुम्हारी नज़रें ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
जानते नहींपहचानते नहीं
जुबां से कह न सके
तुमने माना भी नहीं ।
अजनबी बन गये हो तुम
मुझे भी मालूम न था
लेकिन
मेरे बचपन के दोस्त
छिप सकी न ये बात
तुम्हारी उन नज़रों से
जो पहचानती थी मुझे ।
तुम अब तक
नहीं सिखा सके
उन्हें बदल जाना
तभी तो पड़ गया आज
तुम्हें
मुझसे नज़रें चुराना ।
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