अक्तूबर 31, 2012

POST : 208 तुम्हारी नज़रें ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

   तुम्हारी नज़रें ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

जानते नहीं
पहचानते नहीं
जुबां से कह न सके
तुमने माना भी नहीं ।

अजनबी बन गये हो तुम
मुझे भी मालूम न था
लेकिन
मेरे बचपन के दोस्त  
छिप सकी न ये बात
तुम्हारी उन नज़रों से
जो पहचानती थी मुझे ।
 
तुम अब तक
नहीं सिखा सके
उन्हें बदल जाना
तभी तो पड़ गया आज
तुम्हें
मुझसे नज़रें चुराना । 
 

  

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