आस्था ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
सुलझे न जब मुझसेकोई उलझन
निराशा से भर जाये
जब कभी जीवन
नहीं रहता
खुद पर है जब विश्वास
मन में जगा लेता
इक तेरी ही आस।
नहीं बस में कुछ भी मेरे
सोचता हूं है सब हाथ में तेरे
ये मानता हूं और इस भरोसे
बेफिक्र हो जाता हूं
मुश्किलों से अपनी
न घबराता हूं।
लेकिन कभी मन में
करता हूं विचार
कितना सही है
आस्तिक होने का आधार
शायद है कुछ अधूरी
तुझ पे मेरी आस्था
फिर भी दिखा देती है
अंधेरे में कोई रास्ता।
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