दावे ही दावे हैं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
चाबुक अर्थशास्त्र का जब चलतासंवेदना का नहीं होता काम
सत्ता की तलवार देती हमेशा
घायल कर अपना पैगाम।
जीत हार सब पहले से तय है
झुका ले जनता अपना माथ
शासन के कुण्डल कवच और
बंधे हुए सब लोगों के हाथ।
चाकलेट खा भर लो पेट
नहीं अगर घर में हो रोटी
सरकार कह रही क़र्ज़ लो
नुचवाओ फिर बोटी बोटी।
अंधेरा करता दावा है देखो
रौशनी वही अब लाएगा
कातिल खुद सच से कहता
मुझ से कब तक बच पाएगा।
कराह रही मानवता तक है
झेल झेल कर नित नित बाण
नैतिकता का पतन हो रहा
कैसा हो रहा भारत निर्माण।
सरकारी ऐसे विज्ञापन
जिस जिस को भरमाएंगे
मांगने अधिकार गये जब
क्या घर वापस आ पाएंगे।
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