अक्तूबर 24, 2012

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सपनों में जीना ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

देखता रहा
जीवन के सपने
जीने के लिये 
शीतल हवाओं के
सपने देखे
तपती झुलसाती लू में ।

फूलों और बहारों के
सपने देखे
कांटों से छलनी था
जब बदन
मुस्कुराता रहा
सपनों में
रुलाती रही ज़िंदगी ।

भूख से तड़पते हुए
सपने देखे
जी भर खाने के
प्यार सम्मान के
सपने देखे
जब मिला
तिरस्कार और ठोकरें ।

महल बनाया सपनों में
जब नहीं रहा बाकी
झोपड़ी का भी निशां 
राम राज्य का देखा सपना
जब आये नज़र
हर तरफ ही रावण ।

आतंक और दहशत में रह के
देखे प्यार इंसानियत
भाई चारे के ख़्वाब
लगा कर पंख उड़ा गगन में
जब नहीं चल पा रहा था
पांव के छालों से ।

भेदभाव की ऊंची दीवारों में
देखे सदभाव समानता के सपने
आशा के सपने
संजोए निराशा में
अमृत समझ पीता रहा विष
मुझे है इंतज़ार बसंत का
समाप्त नहीं हो रहा
पतझड़ का मौसम।

मुझे समझाने लगे हैं सभी
छोड़ सपने देखा करूं वास्तविकता
सब की तरह कर लूं स्वीकार
जो भी जैसा भी है ये समाज
कहते हैं सब लोग
नहीं बदलेगा कुछ भी
मेरे चाहने से ।

बढ़ता ही रहेगा अंतर ,
बड़े छोटे ,
अमीर गरीब के बीच ,
और बढ़ती जाएंगी ,
दिवारें नफरत की ,
दूभर हो जाएगा जीना भी ,
नहीं बचा सकता कोई भी ,
जब सब क़त्ल ,
कर रहे इंसानियत का ।

मगर मैं नहीं समझना चाहता ,
यथार्थ की सारी ये बातें ,
चाहता हूं देखता रहूं ,
सदा प्यार भरी ,
मधुर कल्पनाओं के सपने ,
क्योंकि यही है मेरे लिये ,
जीने का सहारा और विश्वास । 
 

 

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