सवाल है ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया
जूतों में बंटती दाल हैअब तो ऐसा हाल है
मर गए लोग भूख से
सड़ा गोदामों में माल है।
बारिश के बस आंकड़े
सूखा हर इक ताल है
लोकतंत्र की बन रही
नित नई मिसाल है।
भाषणों से पेट भरते
उम्मीद की बुझी मशाल है
मंत्री के जो मन भाए
वो बकरा हलाल है।
कालिख उनके चेहरे की
कहलाती गुलाल है
जनता की धोती छोटी है
बड़ा सरकारी रुमाल है।
झूठ सिंहासन पर बैठा
सच खड़ा फटेहाल है
जो न हल होगा कभी
गरीबी ऐसा सवाल है।
घोटालों का देश है
मत कहो कंगाल है
सब जहां बेदर्द हैं
बस वही अस्पताल है।
कल जहां था पर्वत
आज इक पाताल है
देश में हर कबाड़ी
हो चुका मालामाल है।
बबूल बो कर खाते आम
हो रहा कमाल है
शीशे के घर वाला
रहा पत्थर उछाल है।
चोर काम कर रहे
पुलिस की हड़ताल है
हास्य व्यंग्य हो गया
दर्द से बेहाल है।
जीने का तो कभी
मरने का सवाल है।
ढूंढता जवाब अपने
खो गया सवाल है।
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