अक्तूबर 08, 2012

नये चलन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

नये चलन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

छोड़ गये डूबने वाले का हाथ

लोग सब कितने समझदार हैं

हैं यही बाज़ार के दस्तूर अब

जो बिक गये वही खरीदार हैं ।


जीते भी, मरते भी उसूलों पर थे

न जाने होते वो कैसे इंसान थे

उधर मोड़ लेते हैं कश्ती का रुख

जिधर को हवा के अब आसार हैं ।


किया है वादा, निभाना भी होगा

कभी रही होंगी ऐसी रस्में पुरानी

साथ जीने और मरने की कसमें

आजकल लगती सबको बेकार हैं ।


लोग अजब ,अजब सा शहर है

देखते हैं सुनते हैं बोलते नहीं हैं

सही हुआ, गलत हुआ, सोचकर

न होते कभी भी खुद शर्मसार हैं ।
 

    

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