मई 27, 2013

POST : 340 उड़ानें ख़्वाब में भरते , कटे जबसे हैं पर उनके ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

     उड़ानें ख़्वाब में भरते , कटे जबसे हैं पर उनके ( ग़ज़ल ) 

                         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

उड़ानें ख़्वाब में भरते , कटे जबसे हैं पर उनके
अभी तक हौसला बाकी , नहीं झुकते हैं सर उनके ।

यही बस गुफ़्तगू करनी , अमीरों से गरीबों ने
उन्हें भी रौशनी मिलती , अंधेरों में हैं घर उनके ।

उन्हें सूली पे चढ़ने का , तो कोई ग़म नहीं था पर
यही अफ़सोस था दिल में , अभी बाकी समर उनके ।

कहां पूछा किसी ने आज तक साकी से पीने को
रहे सबको पिलाते पर , रहे सूखे अधर उनके ।

हुई जब शाम रुक जाते , सुबह होते ही चल देते
ज़रा कुछ देर बस ठहरे , नहीं रुकते सफ़र उनके ।

दिये कुछ आंकड़े सरकार ने , क्या क्या किया हमने
बढ़ी गिनती गरीबों की , मिटा डाले सिफ़र उनके ।

हमारे ज़ख्म सारे वक़्त ने ऐसे भरे "तनहा"
चलाये तीर जितने सब हुए अब बेअसर उनके । 
 

 

मई 26, 2013

POST : 339 तन्हा राह का तन्हा मुसाफिर ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

 तन्हा राह का तन्हा मुसाफिर ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

जुड़ा था सभी कुछ
मेरे ही नाम के साथ लेकिन
ज़माने में नहीं था
कुछ भी कहीं पर भी मेरा
बहुत रिश्ते-नाते थे
मेरे नाम से वाबस्ता
मगर उनमें कोई भी
नहीं था मेरा अपना ।

रहने को इक घर
मिलता रहा उम्र भर मुझे
मैं रहता रहा वहां
मगर परायों की तरह
कहने को जानते थे
मुझे शहर के तमाम लोग
लेकिन नहीं किसी ने
पहचाना कभी मुझे ।

जो दोस्त बनाये
हुए न कभी मेरे अपने
दुश्मन भी मुझसे
दुश्मनी निभा नहीं पाये
साथ हमसफ़र चल नहीं सके
मंज़िल तलक
रहबर भी राह मुझको
दिखला नहीं सके ।

इख़्तियार मेरा खुद पर भी कहां था
अपने खिलाफ़ खुद हमेशा खड़ा रहा
अकेला था नहीं था
साया तक भी मेरा साथ
बस अपने आप से ही
बेगाना बन गया मैं ।  
 

 

मई 22, 2013

POST : 338 भुला नफरत सभी की हम मुहब्बत याद रखते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

    भुला नफरत सभी की हम मुहब्बत याद रखते हैं ( ग़ज़ल ) 

                    डॉ लोक सेतिया "तनहा"

भुला नफरत सभी की , हम मुहब्बत याद रखते हैं
सितम जितने हुए भूले इनायत याद रखते हैं ।

तुन्हें भेजे हज़ारों खत , मुहब्बत के कभी हमने
नहीं कुछ भेज पाये हम वही खत याद रखते हैं ।

हमेशा पास रखते हैं , तेरी तस्वीर को लेकिन
ज़माने से छिपाने की हिदायत याद रखते हैं ।

मुहब्बत में कभी कोई , शरारत की नहीं हमने
सताया ख्वाब में आकर शिकायत याद रखते हैं ।

बनेंगे एक दिन मोती , हमारी आंख के आंसू
तेरा दामन इन्हें पौंछे ये हसरत याद रखते हैं ।

किसी को बेवफ़ा कहना , हमें अच्छा नहीं लगता
निभाई थी कभी उसने भी उल्फ़त याद रखते हैं ।

तुम्हारी पास आने , दूर जाने की अदा "तनहा"
वो सारी शोखियां सारी नज़ाकत याद रखते हैं ।  
 

 

मई 04, 2013

POST : 337 बहुत ढूंढा जमाने में नहीं तुम सा मिला कोई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

    बहुत ढूंढा जमाने में नहीं तुम सा मिला कोई ( ग़ज़ल ) 

                        डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बहुत ढूंढा ज़माने में , नहीं तुम सा मिला कोई
तुम्हारे बिन नहीं सुनता , हमारी इल्तिजा कोई ।

इबादत छोड़ मत देना ,परेशां हाल हो कर तुम
यही रखना भरोसा बस , कहीं होगा ख़ुदा कोई ।

हुई वीरान जब महफ़िल , करोगे याद सब उस दिन
वही महफ़िल जमाता था ,कहां उठकर गया कोई ।

किया करते सभी से बेवफ़ाई जो हमेशा हैं
शिकायत क्यों उन्हीं को है नहीं उनका हुआ कोई ।

कभी कह हम नहीं पाये , कभी वो सुन नहीं पाये
शुरू कुछ बात जब करते , तभी बस आ गया कोई ।

छिपा कर इस जहां से तुम  इन्हें पलकों पे रख लेना
तुम्हारे अश्क मोती हैं ,  नहीं ये जानता कोई ।

खताएं भी हुई होंगी , कई हमसे यहां "तनहा"
सभी इंसान दुनिया में , नहीं है देवता कोई ।
 

 

अप्रैल 29, 2013

POST : 336 आखिरी तम्मना ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

आखिरी तम्मना ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया

रात ख़्वाब में मुझसे खुदा ने कहा
तुम्हारे लिये है किसी ने मांगी दुआ
क्या चाहते हो मांगना सोचकर तुम
आज होगी पूरी हर इक इल्तजा ।

मुझसे ताउम्र तुम्हें शिकायत रही
आप खुद से रहते हो हमेशा ही खफ़ा
इबादत सीखी न आया माला जपना
फिर भी कर लो जो भी आरज़ू करनी ।

कहा मैंने पूछा है तो बस यही है कहना
ऐसी दुनिया में मुझे नहीं अब और रहना
जन्नत चाहिये न कोई दोज़ख ही मुझे
बात  है इक ज़रूरी पूरी उसको करना ।

बाद मरने के मुझे इक ऐसा जहां मिले
छोटा और बड़ा नहीं कोई भी जहां  हो
है कहां ऐसी जगह मुझको वो दिखा दो 
कोई परस्तार हो , न जहां कोई खुदा हो ।              ( परस्तार :::: उपासक ) 
 

 

अप्रैल 27, 2013

POST : 335 बड़ा ही मुख़्तसर उसका फ़साना है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बड़ा ही मुख़्तसर उसका फ़साना है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"  

बड़ा ही मुख्तसर उसका फसाना है
बना सच का सदा दुश्मन ज़माना है ।

इधर सब दर्द हैं उस पार सब खुशियां
चला जाये जिसे उस पार जाना है ।

कंटीली राह पर चलना यहां पड़ता
यही सबको मुहब्बत ने बताना है ।

गुज़ारी ज़िंदगी आया कहां जीना
नया क्या है वही किस्सा पुराना है ।

जिसे जब जब परख देखा वही दुश्मन
नहीं अब दोस्तों को आज़माना है ।

हमें सारी उम्र इक काम करना है
अंधेरों को उजालों से मिलाना है ।

ये सारा शहर बदला लग रहा "तनहा"
अभी वैसा तुम्हारा आशियाना है । 
 

 

अप्रैल 25, 2013

POST : 334 नहीं मालूम जिसको खुद पता अपना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       नहीं मालूम जिसको खुद पता अपना ( ग़ज़ल ) 

                     डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नहीं मालूम जिसको खुद पता अपना
बना आये उसी को तुम खुदा अपना ।

बड़ी बेदर्द दुनिया में हो आये तुम
बनाना खुद पड़ेगा रास्ता अपना ।

न करना आरज़ू अपना बनाने की
यहां कोई किसी का कब हुआ अपना ।

तड़पना उम्र भर होगा मुहब्बत में
बहुत प्यारा नसीबा लिख दिया अपना ।

हमारा वक़्त कुछ अच्छा नहीं यारो
चले जाओ सभी दामन छुड़ा अपना ।

नहीं आता किसी के वार से बचना
ज़माने को लिया दुश्मन बना अपना ।

बतायें शर्त से होता है क्या  "तनहा"
लगाई शर्त इक दिन सब बिका अपना । 
 

 

अप्रैल 24, 2013

POST : 333 आज हर झूठ को हरा डाला ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

आज हर झूठ को हरा डाला ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

आज हर झूठ को हरा डाला
आईना सच का जब दिखा डाला ।

बन गये कुछ , लगे उछलने हैं
आपने आस्मां बता डाला ।

आपके सामने बसाया था
घर हमारा तभी जला डाला ।

धर्म वालो कहो किया क्या है
हर किसी को ज़हर पिला डाला ।

जिसपे दीवार को चुना इक दिन
आज पत्थर वही हटा डाला ।

मुस्कुराये लगे हमें कहने
आपके प्यार ने मिटा डाला ।

आज देखा उदास "तनहा" को
रुख से परदा तभी हटा डाला । 
 

 

अप्रैल 23, 2013

POST : 332 मिल के आये अभी ज़िंदगी से ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 मिल के आये अभी ज़िंदगी से ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मिल के आये अभी ज़िंदगी से
की मुलाक़ात इक अजनबी से ।

मांगते सब ख़ुशी की दुआएं
दूर जब हो गये हर ख़ुशी से ।

काश होते सभी लोग ऐसे 
लुत्फ़ लेते वो आवारगी से ।

बात हर इक छुपा कर रखो तुम
कह न देना नशे में किसी से ।

खूबसूरत जहां  कह रहा था
देखना सब मुझे  दूर ही से ।

दर्द कितना,मिले ज़ख्म कितने
मिल गई  दौलतें   दोस्ती से ।

क़त्ल कर लें तुझे आज "तनहा"
पूछते थे यही खुद मुझी से । 
 

 

अप्रैल 20, 2013

POST : 331 सभी को हुस्न से होती मुहब्बत है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सभी को हुस्न से होती मुहब्बत है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सभी को , हुस्न से होती मुहब्बत है
हसीं कितनी हसीनों की शिकायत है ।

भला दुनिया उन्हें कब याद रखती है
कहानी बन चुकी जिनकी हक़ीकत है ।

है गुज़री इस तरह कुछ ज़िंदगी अपनी
हमें जीना भी लगता इक मुसीबत है ।

उन्हें आया नहीं बस दोस्ती करना
किसी से भी नहीं बेशक अदावत है ।

वो आकर खुद तुम्हारा हाल पूछें जब
सुनाना तुम तुम्हारी क्या हिकायत है ।

हमें लगती है बेमतलब हमेशा से
नहीं सीखी कभी हमने सियासत है ।

वहीं दावत ,जहां मातम यहां "तनहा"
हमारे शहर की अपनी रिवायत है । 
 

 

अप्रैल 19, 2013

POST : 330 आबरू तार तार खबरों में ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

आबरू तार तार खबरों में ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

आबरू तार तार ख़बरों में
आदमी शर्मसार ख़बरों में ।

शहर बिकने चला खरीदोगे
लो पढ़ो इश्तिहार ख़बरों में ।

नींद क्या चैन तक गवा बैठे
लोग सब बेकरार ख़बरों में ।

देख सरकार सो गई शायद
मच रही लूट मार ख़बरों में ।

आमने सामने नहीं लड़ते
कर रहे आर पार ख़बरों में ।

झूठ को सच बना दिया ऐसे
दोहरा बार बार ख़बरों में ।

नासमझ कौन रह गया "तनहा"
सब लगें होशियार ख़बरों में । 
 
 Kolkata Doctor Rape-Murder Case: "Horrifying Reminder Of Humanity's Lowest  Points" | HerZindagi

अप्रैल 16, 2013

POST : 329 करें प्यार सब लोग खुद ज़िंदगी से ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

करें प्यार सब लोग खुद ज़िंदगी से ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

करें प्यार सब लोग खुद ज़िंदगी से
हुए आप अपने से क्यों अजनबी से ।

कभी गुफ़्तगू आप अपने से करना
मिले एक दिन आदमी आदमी से ।

खरीदो कि बेचो , है बाज़ार दिल का
मगर सब से मिलना यहां, बेदिली से ।

हमें और पीछे धकेले गये सब
शुरूआत फिर फिर हुई आखिरी से ।

बताओ तुम्हें और क्या चाहिए अब
यही , लोग कहने लगे बेरुखी से ।

कहीं और जाकर ठिकाना बना लो
यही , रौशनी ने कहा तीरगी से ।

पड़े जाम खाली सभी आज "तनहा"
बुझाओ अभी प्यास को तशनगी से । 
 

 

अप्रैल 13, 2013

POST : 328 नासमझ कौन है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

नासमझ कौन है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

और कितना
और क्या क्या
और कौन कौन
और कब तक
मुझे समझाते रहेंगे
और कितने लोग ।

क्यों आखिर क्यों
आप समझते हैं
समझता नहीं मैं कुछ भी
और सब कुछ समझते हैं
सिर्फ आप
हमेशा आप ।

चलो माना
हां मान लिया मैंने
समझदार होंगे सभी लोग ।

लेकिन क्या
आपको है अधिकार
किसी को
नासमझ कहने का ।

खुद को समझदार कहने वालो
शायद पहले
समझ लो इक बात ।

किसी और को
नासमझ समझना
समझदारी नहीं हो सकता ।  
 



अप्रैल 10, 2013

POST : 327 फूल जैसे लोग इस ज़माने में ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

फूल जैसे लोग इस ज़माने में ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

फूल जैसे लोग इस ज़माने में
सुन रखे होंगे किसी फ़साने में ।
  
ज़िंदगी मंज़ूर फैसला तेरा
उम्र बीतेगी उन्हें भुलाने में ।

हर किसी को तो बता नहीं सकते
दर्द बढ़ जाता उसे सुनाने में ।

छेड़ कर बुझती हुई चिंगारी इक 
खुद लगा ली आग आशियाने में ।

कोशिशें उसने हज़ार कर देखीं
लुत्फ़ आया और रूठ जाने में ।

तोड़ डाली खेल खेल में दुनिया
फिर ज़माना लग गया बसाने में ।

आप कितना दूर - दूर रहते हैं
मिट गये हम दूरियां मिटाने में ।

छोड़नी दुनिया हमें पड़ी "तनहा"
अहमियत अपनी उन्हें बताने में ।  
 

 



अप्रैल 08, 2013

POST : 326 सुन ज़माने बात दिल की खुद बताना चाहता हूं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

     सुन ज़माने बात दिल की खुद बताना चाहता हूं ( ग़ज़ल ) 

                          डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सुन ज़माने बात दिल की खुद बताना चाहता हूं
पौंछकर आंसू सभी , अब मुस्कुराना चाहता हूं ।

ज़िंदगी भर आपने समझा मुझे अपना नहीं पर
गैर होकर आपको अपना बनाना चाहता हूं ।

दोस्तों की बेवफ़ाई भूल कर फिर आ गया हूं
बेरहम दुनिया को फिर से आज़माना चाहता हूं ।

किस तरफ जाना तुझे ,अब रास्ते तक पूछते हैं
बस यही कहता हूं उनको इक ठिकाना चाहता हूं ।

आप मत देना सहारा ,जब कभी गिरने लगूं मैं
टूट जाऊं ,बोझ खुद इतना उठाना चाहता हूं ।

आपसे कैसा छिपाना ,जानता सारा ज़माना
सोचता हूं आज लेकिन क्यों दिखाना चाहता हूं ।

नाचते सब लोग "तनहा" तान मेरी पर यहां हैं
आज कठपुतली बना तुमको नचाना चाहता हूं । 
 


 

अप्रैल 07, 2013

POST : 325 सभी का जिसका कोई नहीं था ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

सभी का जिसका कोई नहीं था ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

पार्क में सैर करते करते
हुई थी उससे जान पहचान
मिल जाता था अक्सर सुबह शाम
उसके होटों पे खिली रहती थी
बहुत ही प्यारी सी इक मुस्कान ।

बातें बहुत अच्छी सुनाता था हमेशा
अपने सभी हैं चाहते उसको
हमें बस यही था बताता हमेशा
साथ साथ चलते राह लगती थी प्यारी
रहता भी वो मुस्कुराता हमेशा ।

घर का कभी कभी दोस्तों का
कभी ज़िक्र नातों रिश्तों का
जब भी करता बहुत खुश होता
मुहब्बत के भी था किस्से सुनाता
खूबसूरत दुनिया से वो था आता ।

सुना जब नहीं अब रहा बीच अपने
करने थे पूरे उसे ख्वाब कितने
पूछ कर किसी से उसका ठिकाना
गए जब वहां तभी सबने जाना
नहीं कोई उसका सारी दुनिया में
बातें सब उसकी थी कुछ झूठे सपने ।

हमें नज़र आएंगे जब जब भी मेले
नहीं साथ होगा कोई बस हम अकेले
हम भी उसकी बातें दोहराया करेंगे
कहानी उसी की सुनाया करेंगे ।   

  ( शीर्षक : : अनदेखे सुहाने स्वप्न  )

 


 

अप्रैल 04, 2013

POST : 324 मुस्कुराने से लोग जलते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मुस्कुराने से लोग जलते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मुस्कुराने से लोग जलते हैं
फूल- कलियां तभी मसलते हैं ।

बंद कर सामने का दरवाज़ा
छिप के पीछे से खुद निकलते हैं ।

दर्द  अपने नहीं , पराये हैं
दर्द औरों के दिल में पलते हैं ।

दूर सब राजनीति से रहना
राह चिकनी, सभी फिसलते हैं ।

वक़्त को जो नहीं समझ पाते
उम्र भर लोग हाथ मलते हैं ।

एक दिन चढ़ पहाड़ पर देखा
वो भी नीचे की ओर ढलते हैं ।

खोखले हो चुके बहुत "तनहा"
लोग सिक्कों से अब उछलते हैं । 
 
 

अप्रैल 01, 2013

POST : 323 लोग जब मुहब्बत पर ऐतबार कर लेते ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       लोग जब मुहब्बत पर ऐतबार कर लेते ( ग़ज़ल ) 

                      डॉ लोक सेतिया "तनहा"

लोग जब मुहब्बत पर ऐतबार कर लेते
साथ जीने मरने का तब करार कर लेते ।

इश्क में किसी को अपना कभी बना लेते 
इस तरह खिज़ाओं को खुद बहार कर लेते ।

नाख़ुदा नहीं होते हर किसी की किस्मत में
हौसला किया होता, आप पार कर लेते ।

लौटकर भी आना है ,आपको यहां वापस
आप कह गए होते , इंतज़ार कर लेते ।

प्यार के बिना लगती ज़िंदगी नहीं प्यारी
इश्क जब है हो जाता ,जां निसार लेते ।

हम भला कहें कैसे ,हम हुए तेरे आशिक 
नाम मजनुओं में कैसे शुमार कर लेते ।

एक बार ख़त लिखकर , इक जुर्म किया "तनहा"
गर जवाब मिल जाता , बार बार कर लेते । 
 

 

मार्च 31, 2013

POST : 322 खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

      खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता ( ग़ज़ल ) 

                            डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता
हो जीना मौत से बदतर , न इतनी बेबसी देता ।

मुहब्बत दे नहीं सकते अगर , नफरत नहीं करना
यही मांगा सभी से था , नहीं कोई यही देता ।

नहीं कोई भी मज़हब था , मगर करता इबादत था
बनाकर कश्तियां बच्चों को हर दिन कागज़ी देता ।

कहीं दिन तक अंधेरे और रातें तक कहीं रौशन
शिकायत बस यही करनी , सभी को रौशनी देता ।

हसीनों पर नहीं मरते , मुहब्बत वतन से करते
लुटा जां देश पर आते , वो ऐसी आशिकी देता ।

हमें इक बूंद मिल जाती , हमारी प्यास बुझ जाती
थी शीशे में बची जितनी , पिला हमको वही देता ।

कभी कांटा चुभे ऐसा , छलकने अश्क लग जाएं
चले आना यहां "तनहा" है फूलों सी नमी देता । 
 

 

मार्च 28, 2013

POST : 321 मुहब्बत कर के टूटा है सभी का दिल ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       मुहब्बत कर के टूटा है सभी का दिल ( ग़ज़ल ) 

                           डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मुहब्बत कर के टूटा है सभी का दिल
कहां संभला ,संभाले से किसी का दिल ।

भुला बैठा , तुम्हारी बेवफ़ाई जो
हुआ बर्बाद फिर फिर बस उसी का दिल ।

तुम्हें दिल दे दिया हमने , तुम्हारा है
नहीं समझो उसे तुम अजनबी का दिल ।

मनाया लाख इस दिल को नहीं माना
लगा लगने पराया सा कभी का दिल ।

हुए थे पार कितने तीर उस दिल से
मिला इक दिन मुहब्बत की परी का दिल ।

बहाये अश्क दोनों ने बहुत मिलकर 
मिला जब ज़िंदगी से ज़िंदगी का दिल ।

किसी की इक झलक आई नज़र "तनहा"
बड़ा बेचैन रहता है तभी का दिल । 
 

 

मार्च 27, 2013

POST : 320 ऐसी होली फिर से आये ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

ऐसी होली फिर से आये ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

एक घर है बहुत प्यारा हमारा
कोई अकेला नहीं न है बेसहारा
खुला है आंगन  दिल भी खुले हैं
और ऊपर बना हुआ इक चौबारा ।

मिल जुल खेलते सारे हैं होली
है मीठी कितनी लगती घर की बोली
पड़ा झूला भी अंगने के पेड़ पर इक
भैया भाभी सभी की भाती ठिठोली ।

गांव सारा लगे अपना सभी को
चाचा चाची मौसी नानी सहेली
सभी को आज जा कर मिलना
मनानी है सभी के संग ये होली ।

सभी अपने लोग, घर सब अपने
खिलाते हैं खुद बना घर की मिठाई
गिला शिकवा था गर भुलाकर
लगे फिर से गले बन भाई भाई ।

प्यार से रंग उसको भी लगाया
हमारा रंग खूब उसको था भाया
शरमा गई सुन प्यार की बात
सर हां में लेकिन उसने झुकाया ।

नहीं झूठ ,न छल कपट किसी में
जो कहता कोई सब मान लेते
मिलजुल कर बना लेते सभी काम
हो जाता जो मिलकर के ठान लेते ।

कभी फिर से वही पहले सी होली
आ जाये कभी यही सपना है देखा
हटी हो आंगन की सभी दिवारें
मिटे हर मन में खिंची हुई रेखा । 
 

 

मार्च 24, 2013

POST : 319 रोज़ इक ख्वाब मुझको आता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

रोज़ इक ख्वाब मुझको आता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

रोज़ इक ख़्वाब मुझको आता है
जो लिखूं मिट वो खुद ही जाता है ।

कौन जाने कि उसपे क्या गुज़री 
दोस्त दुश्मन को जब बताता है ।

आ गया फिर वही महीना जब  
दिल किसी का किसी पे आता है ।

बस यही हर गरीब कर सकता
अश्क पीता है , ज़हर खाता है ।

सिर्फ मतलब के रह गये रिश्ते 
क्या किसी का किसी से नाता है ।

एक दुनिया नयी बसानी है  
ख़्वाब झूठे हमें दिखाता है ।

बात तनहा अजीब कहता है 
मौत को ज़िंदगी बताता है । 
 

 

मार्च 22, 2013

POST : 318 हमें खुद से शिकायत क्या करें हम ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमें खुद से शिकायत क्या करें हम ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमें खुद से शिकायत क्या करें हम
है चुप रहने की आदत क्या करें हम ।

बड़े मगरूर देखे हुस्न वाले
किसी से फिर मुहब्बत क्या करें हम ।

लिखे हर दिन नहीं भेजे किसी को
जला डाले सभी ख़त क्या करें हम ।

हमारा जुर्म बोला सच हमेशा
मिली ज़िल्लत ही ज़िल्लत क्या करें हम ।

बहुत तनहाईयां लाती है दौलत
ज़माने भर की दौलत क्या करें हम ।

बड़ा है शहर लेकिन लोग छोटे
हमें लगती है आफ़त क्या करें हम ।

ये दिल उनको नहीं देना था "तनहा"
लगी भोली वो सूरत क्या करें हम । 
 

 

मार्च 21, 2013

POST : 317 होगा संभव पांचवें युग में ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

होगा संभव पांचवें युग में ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

मिल कर सभी देवता गये प्रभु के पास
सोच सोच कर जब हुए देवगण उदास ।

कैसे खुश हों उनकी पत्नियां समझ नहीं आता
सफल कभी न हो पाए किए कई प्रयास ।

जाकर किया प्रभु से अपना वही सवाल
बतलाओ प्रभु हो जाये ये हमसे कमाल ।

सब है देव पत्नियों को मिलता नहीं खुश कोई
पूरी कर पाते नहीं   देव तक उनकी आस ।

विनती सुन देवों की प्रभु को समझ न आया
कोई भी हल समस्या का जाता नहीं बताया ।

सुनो देवो बात मेरी  सारे दे कर ध्यान
बदल नहीं सकता विधि का कभी विधान ।

जो खुश पत्नी को कर सकता होगा कोई महान
सच मानो नहीं कर पाया ये मैं खुद भगवान ।

असम्भव कार्य है करना मत कभी भी प्रयास
जो कोई कर दिखाये बन जाऊं मैं उसका दास ।

खुद ईश्वर में जो नारी खोज ले अवगुण सभी
कहलाया करती है औरत पत्नी बस तभी ।

मैं ईश्वर सब कर सकता कहता है ज़माना
असम्भव कहते किसको ये भी था समझाना ।

पत्नी नाम सवाल का नहीं जिसका कोई जवाब
भूल जाओ उसको खुश करने का मत देखो ख्वाब ।

पत्नी को खुश करने वाला हुआ न कोई होगा
चार युगों में सम्भव नहीं  पांचवां वो युग होगा । 
 

 

मार्च 19, 2013

POST : 316 ये कैसे समझदार होने लगे सब ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ये कैसे समझदार होने लगे सब ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ये कैसे समझदार  होने लगे सब
दिया छोड़ हंसना  हैं  रोने लगे सब ।

तिजारत समझ कर मुहब्बत हैं करते 
जो था पास उसको भी खोने लगे सब ।

किसी को किसी का भरोसा कहां है
यहां नाख़ुदा बन डुबोने लगे सब ।

सुनानी थी जिनको भी हमने कहानी 
शुरुआत होते ही सोने लगे सब ।

खुले आस्मां के चमकते सितारे 
नई दुल्हनों के बिछौने लगे सब ।

जिन्होंने हमेशा किए ज़ुल्म सब पर
मिला दर्द पलकें भिगोने लगे सब ।

ज़माने से "तनहा" शिकायत नहीं है
थे अपने मगर गैर होने लगे सब । 
 

 

मार्च 18, 2013

POST : 315 चलता जा रहा हूं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

          चलता जा रहा हूं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया  

अकेला चल पड़ा था मैं यूं ही
अनजान राहों पर  इस तरह
अपनी उस मंज़िल की चाह में
कुछ सपनों को लिए संग संग ।  
 
तलाश है उस शहर की कहीं पर
जहां मिलती है बस सिर्फ़ मुहब्बत 
इक घर बड़ा प्यारा जिसमें रहते
सब अपने कोई नहीं जहां बेगाना । 
 
ढूंढना चाहता हूं दोस्त कोई हो
साथ सुःख दुःख ख़ुशी ग़म को
बांटने के लिए जीवन में हर पल
इतना बहुत है ज़िंदगी भर को । 
 
मिल कर बनानी है इक दुनिया नई
खूबसूरत और रंगीन फूलों जैसी 
कोई झूठ फरेब स्वार्थ नहीं मन में 
सभी लोग सभी को दिल से चाहें । 
 
चलते चलते कभी थक कर रुकता 
ठहरता नहीं आगे बढ़ता जाता हूं 
जो भी मिलता गले लगाकर सभी को 
नित इक नया कारवां बनाता हूं मैं । 
 
चलना है अंतिम सांस लेने तलक 
आसान नहीं होगी लंबी कठिन डगर
ज़िंदगी इक दिन लेगी मधुर आकार 
पहुंचना है गहरे सागर पर उस पार ।  
 
ख़्वाब है हक़ीक़त बनाना है मुझको 
खुद से खुदी को मिलाना है सबको 
इक ऐसा बसेरा जो हर किसी का ही 
कहीं आशियाना वो बनाना है मुझको । 
 
 
चलना मुझे पसंद है महफ़िल सजाना 
बुलाना सभी को आपको भी है आना 
कोई गीत प्यार का मिल हमको गाना 
चलना है बस चलते है हमको जाना ।  



 
  

मार्च 15, 2013

POST : 314 ज़माना झूठ कहता है ज़माने का है क्या कहना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

     ज़माना झूठ कहता है  ज़माने का है क्या कहना ( ग़ज़ल ) 

                  डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ज़माना झूठ कहता है , ज़माने का है क्या कहना
तुम्हें खुद तय ये करना है , किसे क्यों कर खुदा कहना ।

जहां सूरज न उगता हो , जहां चंदा न उगता हो
वहां करता उजाला जो , उसे जलता दिया कहना ।

नहीं कोई भी हक देंगे , तुम्हें खैरात बस देंगे
वो देने भीख आयें जब , हमें सब मिल गया कहना ।

तुम्हें ताली बजाने को , सभी नेता बुलाते हैं
भले कैसा लगे तुमको , तमाशा खूब था कहना ।

नहीं जीना तुम्हारे बिन , कहा उसने हमें इक दिन
उसे चाहा नहीं लेकिन , मुहब्बत है पड़ा कहना ।

हमें इल्ज़ाम हर मंज़ूर होगा , आपका लेकिन
मेरी मज़बूरियां समझो अगर , मत बेवफ़ा कहना ।

हमेशा बस यही मांगा , तुम्हें खुशियां मिलें "तनहा"
हुई पूरी तुम्हारे साथ मांगी ,  हर दुआ कहना ।  
 

 

मार्च 14, 2013

POST : 313 उसी मोड़ पर आप हम फिर मिले हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

         उसी मोड़ पर आप हम फिर मिले हैं ( ग़ज़ल ) 

                            डॉ लोक सेतिया "तनहा"

उसी मोड़ पर आप हम फिर मिले हैं
जहां ख़त्म होते सभी के गिले हैं ।

है रस्ता वही और मंज़िल वही है
मुसाफिर नये ,कुछ नये काफ़िले हैं ।

मिले रोज़ कांटे जिन्हें नफरतों से
हुआ प्यार जब फूल कितने खिले हैं ।

नया दौर कहता मुझे प्यार करना
सदा टूटते सब पुराने किले हैं ।

नहीं घास को कुछ हुआ आंधियों में 
जो ऊंचे शजर थे , वो जड़ तक हिले हैं ।

मुहब्बत में मिलती रहेंगी सज़ाएं 
रुके कब भला इश्क के सिलसिले हैं ।

कहा आज उसने कहो कुछ तो "तनहा"
था कहना बहुत कुछ , मगर लब सिले हैं । 
 

 

मार्च 11, 2013

POST : 312 कहीं दिल के है पास लगता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कहीं दिल के है पास लगता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कहीं दिल के है पास लगता है
ये दिल फिर क्यों उदास लगता है ।

बहुत प्यासा , उसे पिला देना
समुन्दर की वो प्यास लगता है ।

अंधेरी रात जब भी आती है
वही मुखड़ा उजास लगता है ।

जिसे ख़बरों में आ गया रहना
ज़माने भर को ख़ास लगता है ।

न तो चन्दरमुखी , न है पारो
अकेला देवदास लगता है ।

उसे तोड़ा बहुत ज़माने ने
नहीं टूटी है आस लगता है ।

हुये जब दूर चार दिन "तनहा" 
हमें इक दिन भी मास लगता है । 
 

 

मार्च 09, 2013

POST : 311 बात हर इक छुपाने लगा मैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बात हर इक छुपाने लगा मैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बात हर इक छुपाने लगा मैं
कुछ हुआ ,कुछ बताने लगा मैं ।

देखकर जल गये लोग कितने
जब कभी मुस्कुराने लगा मैं ।

सब पुरानी भुलाकर के बातें
दिल किसी से लगाने लगा मैं ।

मयकदे से पिये बिन हूं लौटा
किसलिये  डगमगाने लगा मैं ।

बात करने लगे दिलजलों की
फिर उन्हें याद आने लगा मैं ।

बेवफ़ा खुद मिलाता है नज़रें
और नज़रें झुकाने लगा मैं ।

ख़त जलाकर सभी आज "तनहा"
हर निशां तक मिटाने लगा मैं ।  
 

 

मार्च 08, 2013

POST : 310 खामोशी का आलम ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

ख़ामोशी का आलम ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कुछ भी नहीं है पास
पाना चाहता भी नहीं
अब कुछ भी

नहीं है अपना
दुनिया भर में कोई
अकेला भी नहीं हूं मैं

खोने का नहीं ग़म भी बाकी
पाने की तम्मना अब नहीं है
न चाहत है जीने की मुझको

नहीं मांगनी दुआ भी मौत की
कोई शिकवा गिला नहीं लेकिन
किसी से नहीं अपनापन कोई

अकेला हूं न महफ़िल है
न राह कोई न कोई भी मंज़िल है
नहीं भूला मुझे कुछ भी

नहीं याद अपनी कहानी भी मुझको
कहीं कोई नहीं है अपना खुदा
नहीं रहता मैं दुनिया में भी

किसी से प्यार नहीं दिल में
नहीं मन में नफरत का निशां
सभी एहसास मर चुके जब

समाप्त हर संवेदना हुई जैसे
खामोशी का है आलम
नहीं कुछ भी अब मुझे कहना है

मत पूछना कोई कुछ मुझसे
कहूं क्या
बचा क्या है कहने को ।  
 

 

मार्च 05, 2013

POST : 309 तुम्हारा सभी से बड़ा दोस्ताना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

तुम्हारा सभी से बड़ा दोस्ताना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

तुम्हारा सभी से बड़ा दोस्ताना
किसी रोज़ मिलने हमें भी तो आना ।

हुई भूल कैसी ,जुदा हो गये हम
थे जब साथ दोनों समां था सुहाना ।

यही इश्क होता है , मिलने को उनसे
बिना नाखुदा के नदी पार जाना ।

निराली हैं कितनी अदाएं तुम्हारी
हमें देखना , हम से नज़रें चुराना ।

कहा था मेरा हाथ हाथों में लेकर
किया आपने क्या ,पड़ा दिल लगाना ।

हमें चांद तारों से मतलब नहीं था
उन्हें देखने का था बस इक बहाना ।

महीवाल सोहनी मिले आज फिर से
हुआ प्यार "तनहा" कभी क्या पुराना । 
 

 

मार्च 04, 2013

POST : 308 बहुत है आरती हमने उतारी ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया

बहुत है आरती हमने उतारी  ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया

बहुत है आरती हमने उतारी
नहीं सुनता वो लेकिन अब हमारी ।

जमा कर ली उसने दौलतें  खुद
धर्म का हो गया वो है व्योपारी ।

तरस खाता गरीबों पर नहीं वो
अमीरों से हुई उसकी भी यारी ।

रहे उलझे हम सही गलत में
क्या उसको याद हैं बातें ये सारी ।

कहां है न्याय उसका बताओ
उसी के भक्त कितने अनाचारी ।

सब देखता , करता नहीं कुछ
न जाने लगी कैसी उसको बिमारी ।
 
चलो हम भी तौर अपना बदलें
आएगी तभी हम सब की बारी ।

बिना अपने नहीं वजूद उसका
गाती थी भजन माता हमारी ।

उसे इबादत से खुदा था बनाया
पड़ेगी उसको ज़रूरत अब हमारी ।
 

 

मार्च 03, 2013

POST : 307 सर कहीं पर झुकाना न आया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

  सर कहीं पर झुकाना न आया ( ग़ज़ल ) डॉ  लोक सेतिया "तनहा"

सर कहीं पर झुकाना न आया
उस खुदा को मनाना न आया ।

लोग नाराज़ हों या कि खुश हों
झूठ को सच बताना न आया ।

दोस्ती प्यार मज़हब था सबका
फिर वो गुज़रा ज़माना न आया ।

रात दिन याद करते हैं तुझको
प्यार हमको भुलाना न आया ।

ज़ख्म अपने भरें भी तो कैसे 
चारागर को दिखाना न आया ।

प्यार के गीत रहते ज़ुबां पर
और कोई तराना न आया ।

जां उसी की अमानत है "तनहा"
हर किसी पर लुटाना न आया । 
 


 

मार्च 01, 2013

POST : 306 असली नकली चेहरे ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

असली-नकली चेहरे ( हास्य व्यंग्य कविता ) लोक सेतिया

आज बदली- बदली लगती है उनकी चाल
आये हैं पास मेरे दिखलाने को इक कमाल
दोगुना दिला सकते हैं मुझको किराया
सरकारी बैंक के बन कर खुद ही दलाल ।

दूर कर सकते हैं हर इक राह की बाधा
पूछने आये हैं हमसे क्या हमारा इरादा
समझा रहे हैं सारा गणित सरकारी
करवा देंगे काम ये है पक्का वादा ।

बस देनी पड़ेगी रिश्वत काम कराने को
कुछ हिस्सा उनका कुछ औरों को खिलाने को
आये  हैं आज गंगा उलटी बहाने पर 
उन्हें आना चाहिये था भ्रष्टाचार मिटाने को ।

हमने पूछा क्या वही हैं आप सरकार
बने हुए थे सचाई के जो कल पैरोकार
किसी नाम की पहनी हुई थी सफेद टोपी
कहते थे मिटाना है इस देश से भ्रष्टाचार ।

बोले हो तुम बड़े नासमझ मेरे यार
हम दलालों का यही रहा है कारोबार
फालतू है इमानदारी का फतूर
निकाल उसे भेजे से और  दे गोली मार ।

वो भाषण वो नारे जलूस में जाना
शोहरत पाने का था बस इक बहाना
भ्रष्टाचार मिटाना नहीं मकसद अपना
हमने तो सीखा है खाना और खिलाना ।

छोड़ो बाकी सारी बातें सब भूल जाने दो
कमा लो कुछ खुद  कुछ हमको कमाने दो
सीख लो हमसे कैसे करते हैं अच्छी कमाई
खाओ खुद खाने दो उनको भी खिलाने दो ।

कहानी पूरी जब किसी को थी सुनाई ,
उनकी सूरत है कैसी तब समझ में आई ।

सुनकर बात उनके मुहं में आया पानी
हमको मिलवाओ उनसे होगी मेहरबानी
मंज़ूर है करना मुझे ऐसा अनुबंध भी
क्यों करें नये युग में बातें भला पुरानी ।

क्या बतायें हैं कौन वो क्या उनका कारोबार
दुनिया कहती है उनको ही सच के पहरेदार । 
 

 

फ़रवरी 27, 2013

POST : 305 लोग कितना मचाये हुए शोर हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

लोग कितना मचाये हुए शोर हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

लोग कितना मचाये हुए शोर हैं
एक बस हम खरे और सब चोर हैं ।

साथ दुनिया के चलते नहीं आप क्यों
लोग सब उस तरफ , आप इस ओर हैं ।

चल रही है हवा , उड़ रही ज़ुल्फ़ है
लो घटा छा गई ,  नाचते मोर हैं ।

हाथ जोड़े हुए मांगते वोट थे
मिल गई कुर्सियां और मुंहजोर हैं ।

क्या हुआ है नहीं कुछ बताते हमें 
नम हुए किसलिए आंख के कोर हैं ।

सब ये इलज़ाम हम पर लगाने लगे
दिल चुराया किसी का है , चितचोर हैं ।

टूट जाये अगर फिर न "तनहा" जुड़े
यूं नहीं खींचते , प्यार की डोर हैं । 
 

 

फ़रवरी 25, 2013

POST : 304 जनाज़े पे मेरे तुम्हें भी है आना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

जनाज़े पे मेरे तुम्हें भी है आना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

जनाज़े पे मेरे तुम्हें भी है आना
नहीं भूल जाना ये वादा निभाना ।

लगे प्यार करने यकीनन किसी को
कहां उनको आता था आंसू बहाना ।

तुम्हें राज़ की बात कहने लगे हैं
कहीं सुन न ले आज ज़ालिम ज़माना ।

बनाकर नई राह चलते रहे हैं
नहीं आबशारों का कोई ठिकाना ।

हमें देखना गांव अपना वही था
यहां सब नया है, नहीं कुछ पुराना ।

उन्हें घर बुलाते, थी हसरत हमारी
कसम दे गये, अब हमें मत बुलाना ।

मिले ज़िंदगी गर किसी रोज़ "तनहा"
मनाकर के लाना , हमें भी मिलाना ।
 
 

फ़रवरी 23, 2013

POST : 303 नाम पर तहज़ीब के बेहूदगी है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नाम पर तहज़ीब के बेहूदगी है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नाम पर तहज़ीब के ,   बेहूदगी है 
रौशनी समझे जिसे सब , तीरगी है ।

सांस लेना तक हुआ मुश्किल यहां पर
इस तरह जीना भी , कोई ज़िंदगी है ।

सब कहीं आते नज़र हमको वही हैं 
आग उनके इश्क की ऐसी लगी है ।

कह दिया कैसे नहीं कोई किसी का 
तोड़ दिल देती तुम्हारी दिल्लगी है ।

पौंछते हैं हाथ से आंसू किसी के 
और हो जाती हमारी  बंदगी है ।

सब हसीनों की अदाओं पर हैं मरते 
भा गई मुझको तुम्हारी सादगी है ।

मयकदा सारा हमें "तनहा" पिला दो
आज फिर से प्यास पीने की जगी है ।
 

 

फ़रवरी 20, 2013

POST : 302 हो गया क्यों किसी को प्यार है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हो गया क्यों किसी को प्यार है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हो गया क्यों किसी को प्यार है
बस इसी बात पर तकरार है ।

कौन आकर हमारे ख़्वाब में
खुद बुलाता हमें उस पार है ।

कुछ खबर तक नहीं हमको हुई
जुड़ गया दिल से दिल का तार है ।

धर्म के नाम पर दंगे हुए
जल गया आग में गुलज़ार है ।

रोग जाने उसे क्या हो गया
चारागर लग रहा बीमार है ।

हर कदम डगमगा कर रख रही
चल रही इस तरह सरकार है ।

शर्त रख दी थी "तनहा" प्यार में ,
कर दिया इसलिये इनकार है । 
 

 

POST : 301 ज़रा सोचना , सोचकर फिर बताना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ज़रा सोचना , सोचकर फिर बताना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ज़रा सोचना सोचकर फिर बताना
हुआ है किसी का कभी भी ज़माना ।

इसी को तो कहते सभी लोग फैशन
यही कल नया था हुआ अब पुराना ।

उसी को पता है किया इश्क़ जिसने
कि होता है कैसा ये मौसम सुहाना ।

मेरी कब्र इक दिन बनेगी वहीं पर
मुझे घर जहां पर कभी था बनाना ।

सभी दोस्त आए बचाने हमें थे
लगाते रहे पर हमीं पर निशाना ।

उठा दर्द सीने में फिर से वही है
वही धुन हमें आज फिर तुम सुनाना ।

रहा सोचता रात भर आज "तनहा"
है रूठा हुआ कौन  किसने मनाना । 
 

 

फ़रवरी 18, 2013

POST : 300 बेबस जीवन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

बेबस जीवन ( कविता ) लोक सेतिया

रातों को अक्सर
जाग जाता हूं
खिड़की से झांकती
रौशनी में
तलाश करता हूं
अपने अस्तित्व को ।

सोचता हूं
कब छटेगा
मेरे जीवन से अंधकार ।

होगी कब
मेरे लिये भी सुबह ।

उम्र सारी
बीत जाती है 
देखते हुए  सपने 
एक सुनहरे जीवन के ।

मैं भी चाहता हूं
पल दो पल को 
जीना ज़िंदगी को
ज़िंदगी की तरह ।

कोई कभी करता 
मुझ से भी जी भर के प्यार 
बन जाता कभी कोई
मेरा भी अपना ।

चाहता हूं अपने आप पर
खुद का अधिकार
और कब तक
जीना होगा मुझको
बन कर हर किसी का
सिर्फ कर्ज़दार
ज़िंदगी पर क्यों 
नहीं है मुझे ऐतबार । 
 

 

फ़रवरी 16, 2013

POST : 299 तीरगी कह गई राज़ की बात है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

तीरगी कह गई राज़ की बात है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

तीरगी कह गई राज़ की बात है
बेवफ़ा वो नहीं चांदनी रात है ।

लब रहे चुप मगर बात होती रही
इस तरह भी हुई इक मुलाकात है ।

झूठ भाता नहीं , प्यार सच से हुआ
मुझ में शायद छुपा एक सुकरात है ।

आज ख़त में उसे लिख दिया बस यही
आंसुओं की यहां आज बरसात है ।

हर जुमेरात करनी मुलाकात थी
आ भी जाओ कि आई जुमेरात है ।

भूल जाना नहीं डालियो तुम मुझे
कह रहा शाख से टूटता पात है ।

तुम मिले क्या मुझे , मिल गई ज़िंदगी
दिल में "तनहा" यही आज जज़्बात है ।
 

 

POST : 298 दर्द का नाता ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

  दर्द का नाता ( कविता ) लोक सेतिया

सुन कर कहानी एक अजनबी की
अथवा पढ़कर किसी लेखक की
कोई कहानी
एक काल्पनिक पात्र के दुःख में
छलक आते हैं
हमारी भी पलकों पर आंसू।

क्योंकि याद आ जाती है सुनकर हमें
अपने जीवन के
उन दुखों परेशानियों की
जो हम नहीं कह पाये कभी किसी से
न ही किसी ने समझा
जिसको बिन बताये ही।

छिपा कर रखते हैं हम
अपने जिन ज़ख्मों को
उभर आती है इक टीस सी उनकी
देख कर दूसरों के ज़ख्मों को।

सुन कर किसी की दास्तां को
दर्द की तड़प बना देती है
हर किसी को हमारा अपना
सबसे करीबी होता है नाता 
इंसान से इंसान के दर्द का।

फ़रवरी 12, 2013

POST : 297 कुछ भी कहते नहीं नसीबों को ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कुछ भी कहते नहीं नसीबों को ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कुछ भी कहते नहीं नसीबों को
चूम लेते हैं खुद सलीबों को ।

तोड़ सब सरहदें ज़माने की
दफ़न कर दो कहीं ज़रीबों को ।

दर्द औरों के देख रोते हैं
लोग समझे कहां अदीबों को ।

आज इंसानियत कहां ज़िंदा
सब सताते यहां गरीबों को ।

इश्क की बात को छुपा लेते
क्यों बताते रहे रकीबों को ।

लूट कर जो अमीर बन बैठे
आज देखा है बदनसीबों को ।

क्यों किनारे मिलें उन्हें "तनहा"
जो डुबोते रहे हबीबों को । 
 

 

फ़रवरी 08, 2013

POST : 296 अपने आप से साक्षात्कार ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

अपने आप से साक्षात्कार ( कविता )  डॉ लोक सेतिया 

हम क्या हैं
कौन हैं
कैसे हैं 
कभी किसी पल
मिलना खुद को ।

हमको मिली थी
एक विरासत
प्रेम चंद
टैगोर
निराला
कबीर
और अनगिनत
अदीबों
शायरों
कवियों
समाज सुधारकों की ।

हमें भी पहुंचाना था
उनका वही सन्देश
जन जन
तक जीवन भर
मगर हम सब
उलझ कर रह गये 
सिर्फ अपने आप तक हमेशा ।

मानवता
सदभाव
जन कल्याण
समाज की
कुरीतियों का विरोध
सब महान
आदर्शों को छोड़ कर
हम करने लगे
आपस में टकराव ।

इक दूजे को
नीचा दिखाने के लिये 
कितना गिरते गये हम
और भी छोटे हो गये
बड़ा कहलाने की
झूठी चाहत में ।

खो बैठे बड़प्पन भी अपना
अनजाने में कैसे
क्या लिखा
क्यों लिखा
किसलिये लिखा
नहीं सोचते अब हम सब
कितनी पुस्तकें
कितने पुरस्कार
कितना नाम
कैसी शोहरत
भटक गया लेखन हमारा
भुला दिया कैसे हमने 
मकसद तक अपना ।

आईना बनना था 
हमको तो
सारे ही समाज का 
और देख नहीं पाये
हम खुद अपना चेहरा तक
कब तक अपने आप से
चुराते रहेंगे  हम नज़रें
करनी होगी हम सब को
खुद से इक मुलाकात । 
 

 

फ़रवरी 03, 2013

POST : 295 सब पराये हैं ज़िंदगी ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

सब पराये हैं ज़िंदगी ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया

देख आये हैं ज़िंदगी
सब पराये हैं ज़िंदगी ।

किसी ने पुकारा नहीं
बिन बुलाये हैं ज़िंदगी ।

खिज़ा के मौसम में हम
फूल लाये  हैं ज़िंदगी ।

अपने क्या बेगाने तक
आज़माये हैं ज़िंदगी ।

दर्द वाले नग्में हमने
गुनगुनाये हैं ज़िंदगी ।
 

 
 

POST : 294 आंखें ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

आंखें ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया

बादलों सी बरसती  हैं आंखें 
बेसबब छलकती हैं आंखें ।

गांव का घर छूट गया जो
देखने को तरसती हैं आंखें ।

जुबां से नहीं जब कहा जाता
बात तब भी करती हैं आंखें ।

मौसम पहाड़ों का होता जैसे
ऐसे कभी बदलती हैं आंखें ।

नज़र के सामने आ जाये जब
बिन काजल संवरती हैं आंखें ।

गज़ब ढाती हैं हम पर जब 
और भी तब चमकती हैं आंखें । 
 

 

फ़रवरी 02, 2013

POST : 293 प्यास प्यार की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

प्यास प्यार की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कहलाते हैं बागबां भी 
होता है सभी कुछ  उनके पास 
फिर भी खिल नहीं पाते 
बहार के मौसम में भी
उनके आंगन के कुछ पौधे ।

वे समझ पाते नहीं 
अधखिली कलिओं के दर्द को  ।

नहीं जान पाते 
क्यों मुरझाये से रहते  हैं
बहार के मौसम में भी 
उनके लगाये पौधे
उनके प्यार के बिना ।

सभी कहलाते हैं
अपने मगर
नहीं होता उनको
कोई सरोकार
हमारी ख़ुशी से
हमारी पीड़ा से ।

दुनिया में मिल जाते हैं
दोस्त बहुत
मिलता नहीं वही एक
जो बांट सके हमारे दर्द भी
और खुशियां भी
समझ सके
हर परेशानी हमारी 
बन कर किरण आशा की 
दूर कर सके अंधियारा
जीवन से हमारे ।

घबराता है जब भी मन
तनहाइयों से
सोचते हैं तब
काश होता अपना भी कोई ।

भागते जा रहे हैं
मृगतृष्णा के पीछे हम सभी
उन सपनों के लिये
जो नहीं हो पाते कभी भी पूरे ।

उलझे हैं सब
अपनी उलझनों में
नहीं फुर्सत किसी को 
किसी के लिये भी
करना चाहते हैं हम 
अपने दिल की किसी से बातें
मगर मिलता नहीं कोई 
हमें समझने वाला ।

सामने आता है
हम सब को नज़र 
प्यार का एक
बहता हुआ दरिया 
फिर भी नहीं मिलता 
कभी चाहने पर किसी को
दो बूंद भी  पानी
बस इतनी सी ही है 
अपनी तो कहानी । 
 

   

जनवरी 27, 2013

POST : 292 सच जो कहने लगा हूं मैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सच जो कहने लगा हूं मैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सच जो कहने लगा हूं मैं
सबको लगता बुरा हूं मैं ।

अब है जंज़ीर पैरों में
पर कभी खुद चला हूं मैं ।

बंद था घर का दरवाज़ा
जब कभी घर गया हूं मैं ।

अब सुनाओ मुझे लोरी
रात भर का जगा हूं मैं ।

अब नहीं लौटना मुझको
छोड़ कर सब चला हूं मैं ।

आप मत उससे मिलवाना
ज़िंदगी से डरा हूं मैं ।

सोच कर मैं ये हैरां हूं
कैसे "तनहा" जिया हूं मैं ।