उड़ानें ख़्वाब में भरते , कटे जबसे हैं पर उनके ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
उड़ानें ख़्वाब में भरते , कटे जबसे हैं पर उनकेअभी तक हौसला बाकी , नहीं झुकते हैं सर उनके।
यही बस गुफ़्तगू करनी , अमीरों से गरीबों ने
उन्हें भी रौशनी मिलती , अंधेरों में हैं घर उनके।
उन्हें सूली पे चढ़ने का , तो कोई ग़म नहीं था पर
यही अफ़सोस था दिल में , अभी बाकी समर उनके।
कहां पूछा किसी ने आज तक साकी से पीने को
रहे सबको पिलाते पर , रहे सूखे अधर उनके।
हुई जब शाम रुक जाते , सुबह होते ही चल देते
ज़रा कुछ देर बस ठहरे , नहीं रुकते सफ़र उनके।
दिये कुछ आंकड़े सरकार ने , क्या क्या किया हमने
बढ़ी गिनती गरीबों की , मिटा डाले सिफ़र उनके।
हमारे ज़ख्म सारे वक़्त ने ऐसे भरे "तनहा"
चलाये तीर जितने सब हुए अब बेअसर उनके।
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