असली-नकली चेहरे ( हास्य व्यंग्य कविता ) लोक सेतिया
आज बदली- बदली लगती है उनकी चालआये हैं पास मेरे दिखलाने को इक कमाल
दोगुना दिला सकते हैं मुझको किराया
सरकारी बैंक के बन कर खुद ही दलाल ।
दूर कर सकते हैं हर इक राह की बाधा
पूछने आये हैं हमसे क्या हमारा इरादा
समझा रहे हैं सारा गणित सरकारी
करवा देंगे काम ये है पक्का वादा ।
बस देनी पड़ेगी रिश्वत काम कराने को
कुछ हिस्सा उनका कुछ औरों को खिलाने को
आये हैं आज गंगा उलटी बहाने पर
उन्हें आना चाहिये था भ्रष्टाचार मिटाने को ।
हमने पूछा क्या वही हैं आप सरकार
बने हुए थे सचाई के जो कल पैरोकार
किसी नाम की पहनी हुई थी सफेद टोपी
कहते थे मिटाना है इस देश से भ्रष्टाचार ।
बोले हो तुम बड़े नासमझ मेरे यार
हम दलालों का यही रहा है कारोबार
फालतू है इमानदारी का फतूर
निकाल उसे भेजे से और दे गोली मार ।
वो भाषण वो नारे जलूस में जाना
शोहरत पाने का था बस इक बहाना
भ्रष्टाचार मिटाना नहीं मकसद अपना
हमने तो सीखा है खाना और खिलाना ।
छोड़ो बाकी सारी बातें सब भूल जाने दो
कमा लो कुछ खुद कुछ हमको कमाने दो
सीख लो हमसे कैसे करते हैं अच्छी कमाई
खाओ खुद खाने दो उनको भी खिलाने दो ।
कहानी पूरी जब किसी को थी सुनाई ,
उनकी सूरत है कैसी तब समझ में आई ।
सुनकर बात उनके मुहं में आया पानी
हमको मिलवाओ उनसे होगी मेहरबानी
मंज़ूर है करना मुझे ऐसा अनुबंध भी
क्यों करें नये युग में बातें भला पुरानी ।
क्या बतायें हैं कौन वो क्या उनका कारोबार
दुनिया कहती है उनको ही सच के पहरेदार ।
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