कहीं दिल के है पास लगता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
कहीं दिल के है पास लगता हैये दिल फिर क्यों उदास लगता है।
बहुत प्यासा , उसे पिला देना
समुन्दर की वो प्यास लगता है।
अंधेरी रात जब भी आती है
वही मुखड़ा उजास लगता है।
जिसे ख़बरों में आ गया रहना
ज़माने भर को ख़ास लगता है।
न तो चन्दरमुखी , न है पारो
अकेला देवदास लगता है।
उसे तोड़ा बहुत ज़माने ने
नहीं टूटी है आस लगता है।
हुये जब दूर चार दिन "तनहा"
हमें इक दिन भी मास लगता है।
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