फूल जैसे लोग इस ज़माने में ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
फूल जैसे लोग इस ज़माने मेंसुन रखे होंगे किसी फ़साने में।
ज़िंदगी मंज़ूर फैसला तेरा
उम्र बीतेगी उन्हें भुलाने में
हर किसी को तो बता नहीं सकते
दर्द बढ़ जाता उसे सुनाने में।
छेड़ कर बुझती हुई चिंगारी इक
खुद लगा ली आग आशियाने में।
कोशिशें उसने हज़ार कर देखीं
लुत्फ़ आया और रूठ जाने में।
तोड़ डाली खेल खेल में दुनिया
फिर ज़माना लग गया बसाने में।
आप कितना दूर - दूर रहते हैं
मिट गये हम दूरियां मिटाने में।
छोड़नी दुनिया हमें पड़ी "तनहा"
अहमियत अपनी उन्हें बताने में।
छेड़ कर बुझती हुई चिंगारी इक
खुद लगा ली आग आशियाने में।
कोशिशें उसने हज़ार कर देखीं
लुत्फ़ आया और रूठ जाने में।
तोड़ डाली खेल खेल में दुनिया
फिर ज़माना लग गया बसाने में।
आप कितना दूर - दूर रहते हैं
मिट गये हम दूरियां मिटाने में।
छोड़नी दुनिया हमें पड़ी "तनहा"
अहमियत अपनी उन्हें बताने में।
1 टिप्पणी:
Shandar ghzl 👌👍
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