अप्रैल 01, 2021

ये कैसे समझदार होने लगे सब ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ये कैसे समझदार होने लगे सब ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ये कैसे समझदार  होने लगे सब
दिया छोड़ हंसना  हैं  रोने लगे सब।

तिजारत समझ कर मुहब्बत हैं करते 
जो था पास उसको भी खोने लगे सब।

किसी को किसी का भरोसा कहां है
यहां नाख़ुदा बन डुबोने लगे सब।

सुनानी थी जिनको भी हमने कहानी 
शुरुआत होते ही सोने लगे सब।

खुले आस्मां के चमकते सितारे 
नई दुल्हनों के बिछौने लगे सब।

जिन्होंने हमेशा किए ज़ुल्म सब पर
मिला दर्द पलकें भिगोने लगे सब।

ज़माने से "तनहा" शिकायत नहीं है
थे अपने मगर गैर होने लगे सब।

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