मार्च 27, 2013

ऐसी होली फिर से आये ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

ऐसी होली फिर से आये ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

एक घर है बहुत प्यारा हमारा
कोई अकेला नहीं न है बेसहारा
खुला है आंगन  दिल भी खुले हैं
और ऊपर बना हुआ इक चौबारा ।

मिल जुल खेलते सारे हैं होली
है मीठी कितनी लगती घर की बोली
पड़ा झूला भी अंगने के पेड़ पर इक
भैया भाभी सभी की भाती ठिठोली ।

गांव सारा लगे अपना सभी को
चाचा चाची मौसी नानी सहेली
सभी को आज जा कर मिलना
मनानी है सभी के संग ये होली ।

सभी अपने लोग, घर सब अपने
खिलाते हैं खुद बना घर की मिठाई
गिला शिकवा था गर भुलाकर
लगे फिर से गले बन भाई भाई ।

प्यार से रंग उसको भी लगाया
हमारा रंग खूब उसको था भाया
शरमा गई सुन प्यार की बात
सर हां में लेकिन उसने झुकाया ।

नहीं झूठ ,न छल कपट किसी में
जो कहता कोई सब मान लेते
मिलजुल कर बना लेते सभी काम
हो जाता जो मिलकर के ठान लेते ।

कभी फिर से वही पहले सी होली
आ जाये कभी यही सपना है देखा
हटी हो आंगन की सभी दिवारें
मिटे हर मन में खिंची हुई रेखा । 
 

 

2 टिप्‍पणियां:

Acharya Shilak Ram The Writer ने कहा…

बहुरंग बदरंग हुए
सब कुछ हुआ पराया!
सारे ही रंग फीके हुए
देर से समझ में आया!!

Sanjaytanha ने कहा…

होली का पुराने दिनों का चित्र👌👍