चलता जा रहा हूं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
अकेला चल पड़ा था मैं यूं ही
अनजान राहों पर इस तरह
अपनी उस मंज़िल की चाह में
कुछ सपनों को लिए संग संग ।
तलाश है उस शहर की कहीं पर
जहां मिलती है बस सिर्फ़ मुहब्बत
इक घर बड़ा प्यारा जिसमें रहते
सब अपने कोई नहीं जहां बेगाना ।
ढूंढना चाहता हूं दोस्त कोई हो
साथ सुःख दुःख ख़ुशी ग़म को
बांटने के लिए जीवन में हर पल
इतना बहुत है ज़िंदगी भर को ।
मिल कर बनानी है इक दुनिया नई
खूबसूरत और रंगीन फूलों जैसी
कोई झूठ फरेब स्वार्थ नहीं मन में
सभी लोग सभी को दिल से चाहें ।
चलते चलते कभी थक कर रुकता
ठहरता नहीं आगे बढ़ता जाता हूं
जो भी मिलता गले लगाकर सभी को
नित इक नया कारवां बनाता हूं मैं ।
चलना है अंतिम सांस लेने तलक
आसान नहीं होगी लंबी कठिन डगर
ज़िंदगी इक दिन लेगी मधुर आकार
पहुंचना है गहरे सागर पर उस पार ।
ख़्वाब है हक़ीक़त बनाना है मुझको
खुद से खुदी को मिलाना है सबको
इक ऐसा बसेरा जो हर किसी का ही
कहीं आशियाना वो बनाना है मुझको ।
चलना मुझे पसंद है महफ़िल सजाना
बुलाना सभी को आपको भी है आना
कोई गीत प्यार का मिल हमको गाना
चलना है बस चलते है हमको जाना ।
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