मार्च 18, 2013

POST : 315 चलता जा रहा हूं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

          चलता जा रहा हूं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया  

अकेला चल पड़ा था मैं यूं ही
अनजान राहों पर  इस तरह
अपनी उस मंज़िल की चाह में
कुछ सपनों को लिए संग संग ।  
 
तलाश है उस शहर की कहीं पर
जहां मिलती है बस सिर्फ़ मुहब्बत 
इक घर बड़ा प्यारा जिसमें रहते
सब अपने कोई नहीं जहां बेगाना । 
 
ढूंढना चाहता हूं दोस्त कोई हो
साथ सुःख दुःख ख़ुशी ग़म को
बांटने के लिए जीवन में हर पल
इतना बहुत है ज़िंदगी भर को । 
 
मिल कर बनानी है इक दुनिया नई
खूबसूरत और रंगीन फूलों जैसी 
कोई झूठ फरेब स्वार्थ नहीं मन में 
सभी लोग सभी को दिल से चाहें । 
 
चलते चलते कभी थक कर रुकता 
ठहरता नहीं आगे बढ़ता जाता हूं 
जो भी मिलता गले लगाकर सभी को 
नित इक नया कारवां बनाता हूं मैं । 
 
चलना है अंतिम सांस लेने तलक 
आसान नहीं होगी लंबी कठिन डगर
ज़िंदगी इक दिन लेगी मधुर आकार 
पहुंचना है गहरे सागर पर उस पार ।  
 
ख़्वाब है हक़ीक़त बनाना है मुझको 
खुद से खुदी को मिलाना है सबको 
इक ऐसा बसेरा जो हर किसी का ही 
कहीं आशियाना वो बनाना है मुझको । 
 
 
चलना मुझे पसंद है महफ़िल सजाना 
बुलाना सभी को आपको भी है आना 
कोई गीत प्यार का मिल हमको गाना 
चलना है बस चलते है हमको जाना ।  



 
  

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