अनकही बात ( नज़्म / कविता ) डॉ लोक सेतिया
वो उठ कर जाने लगे , तो ये ख़्याल आया कि
रह गई हमारी हर बात , अभी आधी - अधूरी है
दिल ही दिल उनको मान लिया जीवन साथी
तय करनी अभी सफ़र की कितनी लंबी दूरी है
फ़ासले चंद कदमों के नज़र आते लेकिन अभी
बीच में गहरी खाई जैसी कितनी इक मज़बूरी है
खेल तकदीर का है मिल कर बिछुड़ना होता है
फिर मिलने है अभी पर जुदा होना भी ज़रूरी है ।
शायद किसी दूसरे जहां में मुलाक़ात तय है इक
अनकही रह गई अपनी हर बात करनी जहां पूरी है ।
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