रोज़ इक ख्वाब मुझको आता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
रोज़ इक ख़्वाब मुझको आता हैजो लिखूं मिट वो खुद ही जाता है ।
कौन जाने कि उसपे क्या गुज़री
दोस्त दुश्मन को जब बताता है ।
आ गया फिर वही महीना जब
दिल किसी का किसी पे आता है ।
बस यही हर गरीब कर सकता
अश्क पीता है , ज़हर खाता है ।
सिर्फ मतलब के रह गये रिश्ते
क्या किसी का किसी से नाता है ।
एक दुनिया नयी बसानी है
ख़्वाब झूठे हमें दिखाता है ।
बात तनहा अजीब कहता है
मौत को ज़िंदगी बताता है ।
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