उसी मोड़ पर आप हम फिर मिले हैं ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
उसी मोड़ पर आप हम फिर मिले हैंजहां ख़त्म होते सभी के गिले हैं।
है रस्ता वही और मंज़िल वही है
मुसाफिर नये ,कुछ नये काफ़िले हैं।
मिले रोज़ कांटे जिन्हें नफरतों से
हुआ प्यार जब फूल कितने खिले हैं।
नया दौर कहता मुझे प्यार करना
सदा टूटते सब पुराने किले हैं।
नहीं घास को कुछ हुआ आंधियों में
जो ऊंचे शजर थे , वो जड़ तक हिले हैं।
मुहब्बत में मिलती रहेंगी सज़ाएं
रुके कब भला इश्क के सिलसिले हैं।
कहा आज उसने कहो कुछ तो "तनहा"
था कहना बहुत कुछ , मगर लब सिले हैं।
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