बहुत है आरती हमने उतारी ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया
बहुत है आरती हमने उतारीनहीं सुनता वो लेकिन अब हमारी।
जमा कर ली उसने दौलतें खुद
धर्म का हो गया वो है व्योपारी।
तरस खाता गरीबों पर नहीं वो
अमीरों से हुई उसकी भी यारी।
रहे उलझे हम सही गलत में
क्या उसको याद हैं बातें ये सारी।
कहां है न्याय उसका बताओ
उसी के भक्त कितने अनाचारी।
सब देखता , करता नहीं कुछ
न जाने लगी कैसी उसको बिमारी।
चलो हम भी तौर अपना बदलें
आएगी तभी हम सब की बारी।
बिना अपने नहीं वजूद उसका
गाती थी भजन माता हमारी।
उसे इबादत से खुदा था बनाया
पड़ेगी उसको ज़रूरत अब हमारी।
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