ख़ामोशी का आलम ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कुछ भी नहीं है पासपाना चाहता भी नहीं
अब कुछ भी
नहीं है अपना
दुनिया भर में कोई
अकेला भी नहीं हूं मैं
खोने का नहीं ग़म भी बाकी
पाने की तम्मना अब नहीं है
न चाहत है जीने की मुझको
नहीं मांगनी दुआ भी मौत की
कोई शिकवा गिला नहीं लेकिन
किसी से नहीं अपनापन कोई
अकेला हूं न महफ़िल है
न राह कोई न कोई भी मंज़िल है
नहीं भूला मुझे कुछ भी
नहीं याद अपनी कहानी भी मुझको
कहीं कोई नहीं है अपना खुदा
नहीं रहता मैं दुनिया में भी
किसी से प्यार नहीं दिल में
नहीं मन में नफरत का निशां
सभी एहसास मर चुके जब
समाप्त हर संवेदना हुई जैसे
खामोशी का है आलम
नहीं कुछ भी अब मुझे कहना है
मत पूछना कोई कुछ मुझसे
कहूं क्या
बचा क्या है कहने को ।
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