ज़माना झूठ कहता है ज़माने का है क्या कहना ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
ज़माना झूठ कहता है , ज़माने का है क्या कहनातुम्हें खुद तय ये करना है , किसे क्यों कर खुदा कहना ।
जहां सूरज न उगता हो , जहां चंदा न उगता हो
वहां करता उजाला जो , उसे जलता दिया कहना ।
नहीं कोई भी हक देंगे , तुम्हें खैरात बस देंगे
वो देने भीख आयें जब , हमें सब मिल गया कहना ।
तुम्हें ताली बजाने को , सभी नेता बुलाते हैं
भले कैसा लगे तुमको , तमाशा खूब था कहना ।
नहीं जीना तुम्हारे बिन , कहा उसने हमें इक दिन
उसे चाहा नहीं लेकिन , मुहब्बत है पड़ा कहना ।
हमें इल्ज़ाम हर मंज़ूर होगा , आपका लेकिन
मेरी मज़बूरियां समझो अगर , मत बेवफ़ा कहना ।
हमेशा बस यही मांगा , तुम्हें खुशियां मिलें "तनहा"
हुई पूरी तुम्हारे साथ मांगी , हर दुआ कहना ।
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