प्यास प्यार की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कहलाते हैं बागबां भीहोता है सभी कुछ उनके पास
फिर भी खिल नहीं पाते
बहार के मौसम में भी
उनके आंगन के कुछ पौधे ।
वे समझ पाते नहीं
अधखिली कलिओं के दर्द को ।
नहीं जान पाते
क्यों मुरझाये से रहते हैं
बहार के मौसम में भी
उनके लगाये पौधे
उनके प्यार के बिना ।
सभी कहलाते हैं
अपने मगर
नहीं होता उनको
कोई सरोकार
हमारी ख़ुशी से
हमारी पीड़ा से ।
दुनिया में मिल जाते हैं
दोस्त बहुत
मिलता नहीं वही एक
जो बांट सके हमारे दर्द भी
और खुशियां भी
समझ सके
हर परेशानी हमारी
बन कर किरण आशा की
दूर कर सके अंधियारा
जीवन से हमारे ।
घबराता है जब भी मन
तनहाइयों से
सोचते हैं तब
काश होता अपना भी कोई ।
भागते जा रहे हैं
मृगतृष्णा के पीछे हम सभी
उन सपनों के लिये
जो नहीं हो पाते कभी भी पूरे ।
उलझे हैं सब
अपनी उलझनों में
नहीं फुर्सत किसी को
किसी के लिये भी
करना चाहते हैं हम
अपने दिल की किसी से बातें
मगर मिलता नहीं कोई
हमें समझने वाला ।
सामने आता है
हम सब को नज़र
प्यार का एक
बहता हुआ दरिया
फिर भी नहीं मिलता
कभी चाहने पर किसी को
दो बूंद भी पानी
बस इतनी सी ही है
अपनी तो कहानी ।
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