फ़रवरी 18, 2013

POST : 300 बेबस जीवन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

बेबस जीवन ( कविता ) लोक सेतिया

रातों को अक्सर
जाग जाता हूं
खिड़की से झांकती
रौशनी में
तलाश करता हूं
अपने अस्तित्व को ।

सोचता हूं
कब छटेगा
मेरे जीवन से अंधकार ।

होगी कब
मेरे लिये भी सुबह ।

उम्र सारी
बीत जाती है 
देखते हुए  सपने 
एक सुनहरे जीवन के ।

मैं भी चाहता हूं
पल दो पल को 
जीना ज़िंदगी को
ज़िंदगी की तरह ।

कोई कभी करता 
मुझ से भी जी भर के प्यार 
बन जाता कभी कोई
मेरा भी अपना ।

चाहता हूं अपने आप पर
खुद का अधिकार
और कब तक
जीना होगा मुझको
बन कर हर किसी का
सिर्फ कर्ज़दार
ज़िंदगी पर क्यों 
नहीं है मुझे ऐतबार । 
 

 

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