बेबस जीवन ( कविता ) लोक सेतिया
रातों को अक्सरजाग जाता हूं
खिड़की से झांकती
रौशनी में
तलाश करता हूं
अपने अस्तित्व को।
सोचता हूं
कब छटेगा
मेरे जीवन से अंधकार।
होगी कब
मेरे लिये भी सुबह।
उम्र सारी
बीत जाती है
देखते हुए सपने
एक सुनहरे जीवन के।
मैं भी चाहता हूं
पल दो पल को
जीना ज़िंदगी को
ज़िंदगी की तरह।
कोई कभी करता
मुझ से भी जी भर के प्यार
बन जाता कभी कोई
मेरा भी अपना।
चाहता हूं अपने आप पर
खुद का अधिकार
और कब तक
जीना होगा मुझको
बन कर हर किसी का
सिर्फ कर्ज़दार
ज़िंदगी पर क्यों
नहीं है मुझे ऐतबार।
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