कुछ भी कहते नहीं नसीबों को ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
कुछ भी कहते नहीं नसीबों कोचूम लेते हैं खुद सलीबों को ।
तोड़ सब सरहदें ज़माने की
दफ़न कर दो कहीं ज़रीबों को ।
दर्द औरों के देख रोते हैं
लोग समझे कहां अदीबों को ।
आज इंसानियत कहां ज़िंदा
सब सताते यहां गरीबों को ।
इश्क की बात को छुपा लेते
क्यों बताते रहे रकीबों को ।
लूट कर जो अमीर बन बैठे
आज देखा है बदनसीबों को ।
क्यों किनारे मिलें उन्हें "तनहा"
जो डुबोते रहे हबीबों को ।
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