तन्हा राह का तन्हा मुसाफिर ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया
जुड़ा था सभी कुछमेरे ही नाम के साथ लेकिन
ज़माने में नहीं था
कुछ भी कहीं पर भी मेरा
बहुत रिश्ते-नाते थे
मेरे नाम से वाबस्ता
मगर उनमें कोई भी
नहीं था मेरा अपना ।
रहने को इक घर
मिलता रहा उम्र भर मुझे
मैं रहता रहा वहां
मगर परायों की तरह
कहने को जानते थे
मुझे शहर के तमाम लोग
लेकिन नहीं किसी ने
पहचाना कभी मुझे ।
जो दोस्त बनाये
हुए न कभी मेरे अपने
दुश्मन भी मुझसे
दुश्मनी निभा नहीं पाये
साथ हमसफ़र चल नहीं सके
मंज़िल तलक
रहबर भी राह मुझको
दिखला नहीं सके ।
इख़्तियार मेरा खुद पर भी कहां था
अपने खिलाफ़ खुद हमेशा खड़ा रहा
अकेला था नहीं था
साया तक भी मेरा साथ
बस अपने आप से ही
बेगाना बन गया मैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें