फांसी चढ़ने के नौ साल बाद निर्दोष घोषित ( हास - परिहास )
डॉ लोक सेतिया
उनकी कहीं कब्र नहीं बनी कोई कहीं कोई समाधिस्थल नहीं , उनकी याद आई खुद उनको जिन्होंने नौ साल पहले उनकी मौत का फ़रमान सुनाया था , अफ़सोस जताने भी जाएं तो कहां । हुए मर के हम जो रुसवा हुए क्यों न गर्क़े - दरिया न कोई जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता , ग़ालिब को कैसे ख़बर थी कभी दो बड़े ही लोकप्रिय पांच सौ और हज़ार रूपये के करंसी नोटों की ऐसी कहानी कोई लिखेगा । चार दिन क्या चार घड़ी भी उनको मोहलत नहीं मिली चार घंटे बाद उनका होना नहीं होना एक हो गया । कितनी हाहाकार मची थी तब भी तैं की तरस न आया । वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा जैसा हुआ काला धन जमा होने का इल्ज़ाम उन पर लगाकर सूली चढ़ाने से पहले कोई सुनवाई नहीं किसी की भी फरियाद नहीं सुनी सरकार जनाब ने । शायद उनकी रूहें भटक रहीं हैं कोई विधिवत अंतिम संस्कार किसी ने नहीं किया पचास दिन में सौ बार बदलती रही रणनीतियां नतीजा हासिल कुछ नहीं कालिख़ मिटी करंसी रंगीन हो गई तब भी उनको लेकर कोई संवेदना जताई नहीं गई । पितृपक्ष आने को है और उनकी नौवीं बरसी भी आएगी कोई पिंडदान कोई स्मृति का तौर तरीका विचार करने का समय है ।
दुनिया कभी समझ नहीं सकती कि ऐसा क्यों होता है जिनको पापी गुनहगार घोषित कर सज़ा ए मौत का फ़रमान बादशाह अकबर सुनाते हैं उस अनारकली की मुहब्बत और आशिक़ी को लोग भुलाना नहीं चाहते हैं बिल्कुल उसी तरह पांच सौर और हज़ार रूपये के नोटों जैसा रुतबा फिर किसी को हासिल नहीं हुआ । ये भी शायद कोई श्राप लग गया था जो उनकी जगह जारी दो हज़ार की घड़ियां भी गिनती की रहीं आखिर । अब आजकल तो लोगों का कागज़ी करंसी से मोहभंग हो गया है वर्ना मुझे कभी मेरे पिताजी ने रूपये की कीमत इस तरह समझाई थी , कहा था सौ रूपये का नोट जेब में होने पर बोतल का नशा महसूस होता है । मुझे कभी कोई नशा चढ़ा नहीं इस एक लिखने का जूनून है जो रहता है रहेगा हमेशा , देश की अस्सी प्रतिशत की जेब अपनी तरह खाली रहती है मगर कोई ग़म नहीं सरकार का खज़ाना ख़ाली होने लगा है इसका गिला तो है । हमने अपना सब कुछ सौंप दिया तब भी आपकी शासकों की ज़रूरतें पूरी नहीं होती हैं । शायद कभी जिन पूर्वजों को ख़राब साबित करने की कोशिश में खुद अच्छा किरदार पर खरे नहीं उतरे उनको भी बताएंगे कि उन जैसा कभी कोई नहीं हो सकता है । किसी की बनाई लकीर को मिटाने से अपनी लकीर बड़ी नहीं बनती है आपको उनसे अधिक लंबी लकीर बनानी पड़ती है मगर आपने सांप सीढ़ी की तरह ऊंचाई चढ़ने का प्रयास कितनी बार किया और नतीजा धड़ाम से गिरना । अंत में मेरी इक ग़ज़ल पेश है ।
नहीं कुछ पास खोने को रहा अब डर नहीं कोई ( ग़ज़ल )
लोक सेतिया "तनहा"
नहीं कुछ पास खोने को रहा अब डर नहीं कोईहै अपनी जेब तक खाली कहीं पर घर नहीं कोई ।
चले थे सोच कर कोई हमें उसका पता देगा
यहाँ पूछा वहां ढूँढा मिला दिलबर नहीं कोई ।
बताना हुस्न वालों को जिन्हें चाहत है सजने की
मुहब्बत से हसीं अब तक बना ज़ेवर नहीं कोई ।
ग़ज़ल की बात करते हैं ज़माने में कई लेकिन
हमें कहना सिखा देता मिला शायर नहीं कोई ।
हमें सब लोग कहते थे कभी हमको बुलाना तुम
ज़रूरत में पुकारा जब मिला आ कर नहीं कोई ।
कहीं मंदिर बना देखा कहीं मस्जिद बनी देखी
कहाँ इन्सान सब जाएँ कहीं पर दर नहीं कोई ।
वहां करवट बदलते रात भर महलों में कुछ "तनहा"
यहाँ कुछ लोग सोये हैं जहाँ बिस्तर नहीं कोई ।
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