जुलाई 28, 2019

मुहब्बत हक़ीक़त भी अफसाना भी ( इश्क़-इबादत ) डॉ लोक सेतिया

 मुहब्बत हक़ीक़त भी अफसाना भी ( इश्क़-इबादत ) डॉ लोक सेतिया 

 शोर बहुत सुनते रहे खुदा है मुहब्बत , मुहब्बत महबूबा से भी होती है वतन से भी इंसान को इंसान से प्यार सबसे बड़ा धर्म है। जो कहते थे जो सुनाई देता था दिखाई नहीं देता था यही उलझन थी। दीनो धर्म की कितनी किताबें पढ़ीं समझने को जो लिखा हुआ था अमल में सामने नज़र नहीं आता था। शायरी की किताबों को पहले भी पढ़ा तो था मगर समझने को वो नज़र वो दिल नहीं था उस वक़्त लगता है जो मायने ही कुछ और समझ आते थे। अरसे बाद पुरानी शायरी की किताब फिर से पढ़ी तो पता चला बात मुहब्बत की है मगर उस तरह की नहीं जो हमने समझा था। चलो पढ़ते हैं सुनते हैं समझते हैं आशिक़ी का मतलब इस तरह से अब। 

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग , 

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग

मैंने समझा था तू है दरख्शां है हयात , 

तेरा ग़म है ग़म ए  दहर का झगड़ा क्या है

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात , 

तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगों हो जाए , 

यूं न था , मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाए। 

अनगिनत सदियों के तरीक बहिमाना तलिस्म , 

रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुवे

जा-ब - बजा बिकते हुए कूचा-ओ -बाज़ार में जिस्म , 

खाक़ में लिथड़े हुए खून में नहलाए हुए

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे , 

अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे 

और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा , 

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग , 

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग। 

             इश्क़ मुहब्बत प्यार का दम भरने से पहले समझ तो लेते ये है क्या बला। बात केवल दो दिलों की नहीं है बात दुनिवायी मुहब्बत की ही नहीं है बात खुदा भगवान की इबादत की भी है और अपने देश अपने आवाम हर इक इंसान से प्यार की भी है। मुमकिन है जो सबक आपको धर्म की किताब पढ़ने से नहीं समझ आया शायरी की किताब पढ़ने से समझ आ जाये। जब समाज में हर तरफ नफरत की आग लगी ही कोई मुहब्बत का फूल खिल कैसे सकता है। फैज़ अहमद फैज़ की मुहब्बत वतन से है किसी हसीना से नहीं भला कोई अदब वाला देश समाज की बर्बादी को अनदेखा कर किसी हसीना की मुहब्बत में खो कैसे सकता है। साहिर लुधियानवी भी सवाल करते हैं जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं। आजकल तो फिल्म बनाने वाले सच्ची मुहब्बत को समझते हैं न ही देशभक्ति को केवल आडंबर करते हैं और पैसे कमाने को अपनी साहूलियत से इधर उधर से चीज़े उठा लेते हैं। शायद आपको खबर नहीं होती जो आपको परोसा गया है किसी की नकल है और मंच पर नायक नहीं हैं विदूषक हैं हर तरफ। राह दिखाने की नहीं राह से भटकाने की बात करते हैं। अम्न  से प्यार गरीबी से बैर वतन से इश्क़ , सभी ने ओड़ रखे हैं नकाब जितने हैं। इक शायर की ग़ज़ल का शेर है।
   
              फिल्म निर्देशक राज खोसला ने गीतकार मजरूह सुलतानपुरी को कहा उनकी फिल्म के लिए इक गीत लिखने को जिसका मुखड़ा , तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है हो। चिराग़ फिल्म की बात है मजरूह जी ने कहा ये फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म के शब्द हैं उनकी इजाज़त लिए बिना इस्तेमाल नहीं कर सकता। तब पाकिस्तान में फैज़ को खत लिख कर उनकी अनुमति मिलने के बाद ही गीत लिखा और बहुत पसंद किया गया भी। आजकल फिल्म टीवी सीरियल के कहानी लिखने वाले जानते ही नहीं और प्यार की कहानी के नाम पर जाने क्या क्या परोसने का काम करते हैं। टीवी शो पर आशिक़ी को मज़ाक बनाकर हंसाने का नहीं बल्कि वास्तविक प्यार को उपहास बनाने का अपराध किया जाता है। समाज में नैतिकता के मूल्यों के पतन का एक बड़ा कारण यही मुंबई की फ़िल्मी बस्ती है जो रिश्तों का व्यौपार करती है अमीर होने को। समाज के लिए उनको अपना कोई कर्तव्य नहीं मालूम बस दावा करते हैं दिखावा करते हैं वास्तव में खुद भी भटके हुए समाज को भी भटकाना चाहते हैं। अदब के लोग शायर कलाकार कथाकार लोगों का दायित्व है सही मार्ग और सच्चाई को दिखाने का और अच्छे देश समाज की परिकल्पना की बात करने का। जैसे पुराने फ़िल्मकार शायर कथाकार किया करते थे। नया ज़माना आएगा , हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे। सुनते ही जोश भर आता है उम्मीद जागती है। अब निराशा के सिवा कुछ है मीडिया में तो फूहड़ भद्दा हास्य जो समझ आये तो हंसने की नहीं रोने की बात है।

         आजकल आपको कहीं न कोई सच्चा आशिक़ मिलेगा न ही देश पर न्यौछावर होने वाले वास्तविक
  देश से प्यार करने वाले साहस पूर्वक देश समाज की लड़ाई अन्याय का डटकर विरोध करने वाले नज़र आते हैं। देशभक्त होने की बात करते हैं देश पर कुर्बान होने को सीमा पर सैनिक हैं हम अपने देश में रहकर क्यों देश समाज के खिलाफ आचरण करने वालों को मिटाने को सामने नहीं आते , असली पहचान यही है। बात प्यार की करें तो प्यार को जाना समझा नहीं है किसी को पाना हासिल करना प्यार नहीं है। खुद को किसी को सौंपना सच्ची मुहब्बत है इबादत की तरह। हम तो भगवान से भी सौदेबाज़ी करते हैं पूजा अर्चना भी कुछ मांगने को किसी स्वार्थ से करते हैं। खुद को समर्पित करना सीखा नहीं तो ऊपर वाले से नाता हो सकता है न किसी से इश्क़ ही।  ये कब क्यों हुआ कैसे हम प्यार मुहब्बत को छोड़ इक ऐसी ज़िंदगी जीने लगे जो लगता है चमक है रौशनी है मगर सच में है घना अंधेरा कोई। दिल में धड़कन है मगर एहसास नहीं है दर्द का अपने बेगाने सभी के दुःख दर्द को बराबर समझने वाला दिल नहीं है। जब दिल पत्थर का बन जाता है तो उस में कोई एहसास नहीं बचता ख़ुशी दर्द सब से बेखबर आदमी अपने आप में खोया नहीं जानता ये जीना जीना नहीं है। आधुनिकता ने मतलबी लोगों की चालों बातों में फंसकर हमने उन कहानियों को प्यार की दास्तान समझ लिया जो दरअसल प्यार को क़त्ल करने का काम कर रही थीं और ऐसी कहानी लिखने वाले उन पर फिल्म टीवी सीरियल बनाने वाले खुद मुहब्बत को इक सौदेबाज़ी से अधिक नहीं समझते थे। प्यार मुहब्बत का अर्थ ही बदलकर रख दिया उन्होंने अपनी मर्ज़ी या साहूलियत की खातिर। और हमने उनकी ज़िंदगी की आवारगी और मौज मस्ती की ऐशपरस्ती को मुहब्बत मानकर इश्क़ प्यार को इक इल्ज़ाम बना दिया है।

 बात शुरू की थी मुहब्बत की हक़ीक़त को समझने की शायरी की किताब से। शायर कवि जिस प्यार की बात करते रहे उस में आकर्षण और हासिल करने को कुछ भी हद से बढ़कर करने की बात कभी नहीं थी। कुछ भटके हुए लोगों ने हम सभी को जो राह बताई वो कुछ और है प्यार की मुहब्बत की राह हर्गिज़ नहीं। आशिक़ी किसी को बदनाम बेआबरू करने का काम कभी नहीं करती है जान देना जान लेना नहीं जाँनिसार करना किसी पर अपनी जान न्यौछावर करने का नाम है। प्यार किया नहीं जाता हो जाता है और तब जाति मज़हब नहीं दिखाई देता है। इश्क़ खुदा की इबादत की तरह है मीरा का भजन है राधा का नाता है हमने जाने कैसे मान लिया कि कोई रिश्ता कोई नाम बंधन का होना चाहिए प्यार करने वालों के लिए। आशिक़ी मुहब्बत प्यार से बढ़कर कोई भी रिश्ते का नाम नहीं हो सकता है। खुदा और उसकी इबादत करने वाले की तरह अनुबंध नहीं होता है कोई भी। आज समझ आता है पुराने लिखने वालों ने प्यार मुहब्बत इश्क़ पर क्यों ज़िंदगी भर इतना लिखा लिखते रहे क्योंकि इसकी ज़रूरत और सब से बढ़कर थी। इंसान को इंसान बनाये रखने को और कोई भी पढ़ाई कोई चीज़ काम नहीं आती है। हमने कितना कुछ पाया होगा बदलते परिवेश से मगर जो खो दिया है हमने समझा ही नहीं कितना ज़रूरी था। जैसे कोई फूल बिना सुगंध बिना कोमलता के कागज़ी या प्लास्टिक से बना या पत्थर का हो सजावट को , देखने में सुंदर मगर वास्तविकता में बेजान हो।

  आखिर में आपको इक गीत ऐसा जगमोहन जी का गाया हुआ सुनाता हूं जो मुझे लगता है सच्चे प्यार का सबसे पुराना गाना है जिसको सुनकर अनगिनत आशिक़ों ने मुहब्बत की है।





दिल को है तुमसे प्यार क्यों ये न बता सकूंगा मैं , ये न बता सकूंगा मैं। 

पहले मिलन की छांव में तुमसे तुम्हारे गांव में , 
आंखें हुई थी चार क्यों। ये   . .........    
 
रूप की कुछ कमी नहीं दुनिया में इक तुम्हीं नहीं , 
 
पर मैं तुम्हारी याद में रहता हूं बेकरार क्यों। ये ....
 
तुमको नज़र में रख लिया दिल में जिगर में रख लिया , 
खुद मैं हुआ शिकार क्यों ये न बता सकूंगा मैं। 
 
दिल को है तुमसे प्यार क्यों ये   ...... .......  






1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

Bahut bdhiya...Shandaar geet..