मेरे दुश्मन मुझे जीने की दुआ न दे ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया
मेरे दुश्मन मुझे जीने की दुआ न देमौत दे मुझको मगर ऐसी सज़ा न दे ।
उम्र भर चलता रहा हूं शोलों पे मैं
न बुझा इनको ,मगर अब तू हवा न दे ।
जो सरे आम बिके नीलाम हो कभी
सोने चांदी से तुले ऐसी वफ़ा न दे ।
आ न पाऊंगा यूं तो तिरे करीब मैं
मुझको तूं इतनी बुलंदी से सदा न दे ।
दामन अपना तू कांटों से बचा के चल
और फूलों को कोई शिकवा गिला न दे ।
किस तरह तुझ को सुनाऊं दास्ताने ग़म
डरता हूं मैं ये कहीं तुझको रुला न दे ।
ज़िंदगी हमसे रहेगी तब तलक खफा
जब तलक मौत हमें आकर सुला न दे ।
2 टिप्पणियां:
Bahut khub👌👌
Waahh पहले भी पढी है ये 👌
एक टिप्पणी भेजें