अक्तूबर 22, 2012

POST : 196 ज़ुल्म भी हंस के वो तो सहते हैं ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

ज़ुल्म भी हंस के वो तो सहते हैं ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया

ज़ुल्म भी हंस के वो तो सहते हैं 
लोग  कैसे जहां में रहते हैं ।

कत्ल करते हैं वो जिसे चाहा
इसको जम्हूरियत वो कहते हैं ।

ख़्वाब यूं टूटते हैं जनता के 
रेत के ज्यों घरोंदे ढहते हैं ।

वो मगरमच्छ हैं , कि हैं नेता 
अश्क़ जिनके जो बस यूं बहते हैं । 

' लोक ' अब तो यही सियासत है
 दुश्मनों को जो दोस्त कहते हैं ।  
 

 

 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

बढ़िया अशआर