संगीत से शोर होने तक ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कभी जब गलियों सेगुज़रते हैं
बहुत सारे बच्चे
मिल कर एक साथ
करते हैं कई आवाज़ें
हम सुन नहीं पाते
बोल उनके फिर भी
समझ लेते हैं हम
उनकी ख़ुशी उनकी मस्ती ।
भाता है हम सभी को
उन बच्चों का उल्लास
भर जाती है हमारे जीवन में
नई उमंग
देख कर मुस्कुराता बचपन ।
हमें मधुर संगीत सी लगती हैं
तब उन बच्चों की आवाज़ें ।
डराता है मगर हमें वो कोलाहल
जो गूंजता है
गाँव गाँव - शहर शहर - गली गली
सभाओं में व्याख्यानों में ।
बांटता है जो इंसानों को
अपने स्वार्थ की खातिर
कभी धर्म- कभी भाषा - कभी क्षेत्रवाद
के नाम पर ।
नफरत का ज़हर फैलाता हुआ
भर जाता है
एक घुटन सी
हमारे जीवन में ।
खो जाता है जाने कहां
बचपन का मधुर वो संगीत
बड़े होने पर
क्यों बन जाता है बस
इक शोर ।
अच्छा होता दुनिया में सब
होते बच्चे अच्छे अच्छे ।
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