नयी कविता ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
दुनिया के लोगअपने भी बेगाने भी
आते रहते हैं जाते रहते हैं।
पल पल हर दिन
घटती रहती हैं घटनाएं
निरंतर घूमता रहता है
समय का पहिया।
किसे क्या पसंद है क्या नापसंद
इस बात से होता नहीं
किसी को सरोकार।
कभी बन के दर्शक
देखते हैं तमाशा
कभी स्वयं
बन जाते हैं तमाशा भी
तमाशाई भी।
हर दिन इस कोलाहल में
शामिल रहता हूं
मैं भी चाहे अनचाहे
हर सांझ चाहता हूं
भुला दूं वो सब बातें
अच्छी बुरी दिन भर की।
सो जाता हूं
बिस्तर पर अकेला
रात भर
बदलता रहता हूँ करवटें।
ऐसे में लगता है मुझे
हर रात जैसे
सो गया है
कोई मेरे करीब आ कर।
प्यार से थपथपा रहा है मुझे
पल पल रहता है
इक मधुर सा एहसास
किसी के पास होने का।
बीत जाती है
हर रात यूं ही
देखते हुए नये स्वप्न।
आ जाती है नयी सुबह
हर रात के बाद
भोर के उजाले में
ढूंढता हूं मैं उसे
जो था रात भर पास मेरे।
और मिल जाती है
हर सुबह मुझे
तकिये के नीचे इक नयी कविता।
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