इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
इस ज़माने में जीना दुश्वार सच काअब तो होने लगा कारोबार सच का।
हर गली हर शहर में देखा है हमने ,
सब कहीं पर सजा है बाज़ार सच का।
ढूंढते हम रहे उसको हर जगह , पर
मिल न पाया कहीं भी दिलदार सच का।
झूठ बिकता रहा ऊंचे दाम लेकर
बिन बिका रह गया था अंबार सच का।
अब निकाला जनाज़ा सच का उन्होंने
खुद को कहते थे जो पैरोकार सच का।
कर लिया कैद सच , तहखाने में अपने
और खुद बन गया पहरेदार सच का।
सच को ज़िन्दा रखेंगे कहते थे सबको
कर रहे क़त्ल लेकिन हर बार सच का।
हो गया मौत का जब फरमान जारी
मिल गया तब हमें भी उपहार सच का।
छोड़ जाओ शहर को चुपचाप "तनहा"
छोड़ना गर नहीं तुमने प्यार सच का।
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