दोहरा चरित्र ( कविता )
खबर घोटालों कीहर दिन नई
सबको सुनाते हैं
उन्हीं का साथ भी भाए
कभी घर उनके जाते हैं
कभी घर पर उनको बुलाते हैं।
उन्हीं का ही बस सहारा है
नहीं उन बिन गुज़ारा है
सच क्या है
झूठ कितना
रूपये का खेल सारा है
सदा रहते बड़े भूखे
विज्ञापन जिनका चारा है।
चोर चोर चिल्लाते हैं
देशद्रोही बताते हैं
सुबह शाम
उन्हीं के दर पे
हाज़िरी खुद लगाते हैं।
कहो उनसे ज़रा सोचें
हैं क्या
वो क्या खुद को दिखाते हैं
हमें कितना बताते हैं
कहां कितना छुपाते हैं।
है बेदाग़ क्या उनका दामन
दाग़ सबके जो दिखाते हैं।
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