आंखों देखा हाल ( हास्य-व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया
सुबह बन गई थी जब रातये है उस दिन की बात
सांच को आ गई थी आंच
दो और दो बन गए थे पांच।
कत्ल हुआ सरे बाज़ार
मौका ए वारदात से
पकड़ कातिलों को
कोतवाल ने
कर दिया चमत्कार।
तब शुरू हुआ
कानून का खेल
भेज दिया अदालत ने
सब मुजरिमों को सीधा जेल।
अगले ही दिन
कोतवाल को
मिला ऊपर से ऐसा संदेश
खुद उसने माँगा
अदालत से
मुजरिमों की रिहाई का आदेश।
कहा अदालत से
कोतवाल ने
हैं हम ही गाफ़िल
है कोई और ही कातिल।
किया अदालत ने
सोच विचार
नहीं कोतवाल का ऐतबार
खुद रंगे हाथ
उसी ने पकड़े कातिल
और बाकी रहा क्या हासिल।
तब पेश किया कोतवाल ने
कत्ल होने वाले का बयान
जिसमें तलवार को
लिखा गया था म्यान।
आया न जब
अदालत को यकीन
कोतवाल ने बदला
पैंतरा नंबर तीन।
खुद कत्ल होने वाले को ही
अदालत में लाया गया
और लाश से
फिर वही बयान दिलवाया गया।
मुझसे हो गई थी
गलत पहचान
तलवार नहीं हज़ूर
है ये म्यान
मैंने तो देखी ही नहीं कभी तलवार
यूँ कत्ल मेरा तो
होता है बार बार
कहने को आवाज़ है मेरा नाम
मगर आप ही बताएं
लाशों का बोलने से क्या काम।
हो गई अदालत भी लाचार
कर दिये बरी सब गुनहगार
हुआ वही फिर इक बार
कोतवाल का कातिलों से प्यार।
झूठ मनाता रहा जश्न
सच को कर के दफन
इंसाफ बेमौत मर गया
मिल सका न उसे कफन।
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