सहमा हुआ है बचपन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
उसे ढूंढती रहेंगीमेरी नज़रें
शायद अब वो
आए न कभी नज़र
छुप गया है कहीं ।
अपने घर गया है
अथवा गया स्कूल
क्या मालूम ।
अभी अभी
थोड़ी देर पहले
मेरे घर के सामने
पार्क के कोने में
बैठा था
सहमा हुआ लगता
वो छोटा सा इक बच्चा ।
पहने हुए स्कूल की वर्दी
नंगे पांव
पीठ पर लादे
किताबों का बोझ
बुलाने पर
चाहता था सबसे
दूर भाग जाना
मानों डरता हो
हमारी दुनिया से ।
गया था मैं उसके पास
करना चाहता था
बातें उससे
जानना चाहता था
उसकी परेशानी ।
शायद कुछ कर सकूं
उसके लिए
मगर खामोश रहा
मेरी हर बात पर
नहीं दिया था
मेरे किसी सवाल का
कोई भी जवाब
क्यों डरा हुआ है मुझसे
इस सारे समाज से
निराश
अकेला
बेसहारा
देश का ये नन्हा बचपन ।
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