कलाकृति ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
राह में पड़ा होकहीं कोई पत्थर बेजान
हर कोई लगा जाता
ठोकर उसको
इतराता कितना है देखो
ताकत पर अपनी इंसान ।
उठा कर राह के पत्थर को
ले आना घर अपने कभी तुम
तराशना उस पत्थर को
अपने हाथों से
देना नई उसको
इक पहचान ।
देखो करके ये भी काम
मूरत बन जाए
जब वो पत्थर
कोमल कोमल हाथ तुम्हारे
खुरदरे हो जाएं
और लगें दुखने
सुबह से हो जाए जब शाम
देना तुम तब उसे कोई नाम ।
करना फिर खुद से सवाल
जिसे लगाई थी सुबह ठोकर
शाम होते झुका क्यों है
उसी के सामने ही तुम्हारा सर ।
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