लोग कहते हैं कुछ सोचते और हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
लोग कहते हैं कुछ , सोचते और हैंहर किसी के हुए यूं अजब तौर हैं ।
जा रहे हैं किधर ,कुछ न आता नज़र
समझ आता नहीं ,क्या नये दौर हैं ।
इन मशीनों से जाने किसे क्या मिला
छिन गये कुछ गरीबों से बस कौर हैं ।
भूख से मर रहे लोग कैसे जियें
क्या कभी आप सब कर रहे गौर हैं ।
बात दस्तूर की जब हो कहते नहीं
बन गए किसलिये आप सिरमौर हैं ।
अब सभी पूछते हैं पता आपका
कुछ तो "तनहा" कहो अब कहां ठौर हैं ।
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