सितंबर 15, 2012

POST : 133 अनबुझी इक प्यास हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अनबुझी इक प्यास हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अनबुझी इक प्यास हैं
बन चुके इतिहास हैं ।

जब बराबर हैं सभी
कुछ यहां क्यों ख़ास हैं ।

जुगनुओं को देख लो
रौशनी की आस हैं ।

कह रहा खुद आसमां
हम जमीं के पास हैं ।

नाम उनका है खिज़ा
कह रहे मधुमास हैं ।
       
लोग हर युग में रहे
झेलते बनवास हैं ।

हादिसे आने लगे
अब हमें कुछ रास हैं ।

बेटियां बनने लगी
सास की अब सास हैं ।

कह रहे "तनहा" किसे
हम तुम्हारे दास हैं । 
 

 

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