अनबुझी इक प्यास हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
अनबुझी इक प्यास हैंबन चुके इतिहास हैं ।
जब बराबर हैं सभी
कुछ यहां क्यों ख़ास हैं ।
जुगनुओं को देख लो
रौशनी की आस हैं ।
कह रहा खुद आसमां
हम जमीं के पास हैं ।
नाम उनका है खिज़ा
कह रहे मधुमास हैं ।
लोग हर युग में रहे
झेलते बनवास हैं ।
हादिसे आने लगे
अब हमें कुछ रास हैं ।
बेटियां बनने लगी
सास की अब सास हैं ।
कह रहे "तनहा" किसे
हम तुम्हारे दास हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें