बेचते झूठ सच के नाम पर ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
बेचते झूठ सच के नाम परबिक गये खुद भी पूरे दाम पर।
कल थे क्या आज क्या हैं हो गये
लोग हैरान इस अंजाम पर।
पी गये खुद उठा कर हम ज़हर
नाम अपना लिखा था जाम पर।
ढूंढने पर भी मिलते जो नहीं
आ गये खुद ही देखो बाम पर।
भेजना वन में सीता को पड़ा
राम जाने जो बीती राम पर।
हम शिकायत कहां जा कर करें
हो रहे ज़ुल्म खासो-आम पर।
इस तरह जी रहा "तनहा" कभी
सुबह रोया करेगी शाम पर।
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