अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
अपने हो कर भी हम से वो अनजान थेबिन बुलाये- से हम एक मेहमान थे ।
रख दिये इक कली के मसल कर सभी
फूल बनने के उसके जो अरमान थे ।
था तआरूफ तो कुछ और ही आपका
अपना क्या हम तो सिर्फ एक इंसान थे ।
हम समझ कर गये थे उन्हें आईना
वो तो अपनी ही सूरत पे कुर्बान थे ।
ग़म ज़माने के लिखते रहे उम्र भर
खुद जो एहसास-ए-ग़म से भी अनजान थे ।
आदमी नाम हमने उन्हें दे दिया
आदमी की जो सूरत में शैतान थे ।
महफिलों से निकाला बुला कर हमें
कद्रदानों के हम पर ये एहसान थे ।
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