सितंबर 09, 2012

POST : 119 अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

      अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे ( ग़ज़ल ) 

                            डॉ  लोक सेतिया "तनहा"

अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे
बिन बुलाये- से हम एक मेहमान थे ।

रख दिये  इक कली के मसल कर सभी
फूल बनने के उसके जो अरमान थे ।

था तआरूफ तो कुछ और ही आपका
अपना क्या हम तो सिर्फ एक इंसान थे ।

हम समझ कर गये थे उन्हें आईना
वो तो अपनी ही सूरत पे कुर्बान थे ।

ग़म ज़माने के लिखते रहे उम्र भर
खुद जो एहसास-ए-ग़म से भी अनजान थे ।

आदमी नाम हमने उन्हें दे दिया
आदमी की जो सूरत में शैतान थे ।

महफिलों से निकाला बुला कर हमें
कद्रदानों के हम पर ये एहसान थे ।   

कोई टिप्पणी नहीं: