तीन नये दृश्य ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
उसे निकाल दिया हैघर से उन्होंने
जो करते हैं
उसी की बातें
ईश्वर खड़ा
चुपचाप कहीं बाहर ।
बहुत व्यस्त हैं लोग
कर रहे तलाश सच की
दफ्तरों में बैठकर ।
करते हैं बस यही चर्चा
सच को बचाना है
सच
घायल हुआ
आता है
जब उनके पास
करता उनसे सवाल
पहचाना मुझे ।
कौन हो तुम
क्यों आये हो
तुम हमारे पास
कहते हैं वो
जो बने फिरते हैं
सच के पैरोकार ।
लोकतंत्र का है मंदिर
करते नेता
उसका गुणगान
जनता दर्शन को तरसी
छुपा कहां है वो भगवान
आ रही जाने किधर से
बचाने की फ़रियाद
कराह रहा लोकतंत्र
मुझको कर दो आज़ाद ।
समाप्त होने लगी
गूंगो बहरों की ये आशा
देख रहे सारे नेता
खत्म हो कब तमाशा ।
हारने लगी अब ज़िंदगी
लड़ते लड़ते मौत से
अब नहीं आता
कोई भी बचाने को उसे
हो रहा सामान
बस डुबाने को उसे
सहमें सहमें हैं सभी
अब हमारे देश में
राज रावण हैं करते
राम ही के भेस में ।
गावं गावं
शहर शहर
गली गली है डर
लोकतंत्र जिंदा है अभी
या वो चुका है मर ।
नाव डुबोते माझी
माली चमन उजाड़ रहे
कैनवास पर चित्रकार
कैसी तस्वीरें उतार रहे
आलीशान घरों को
सजाएंगी उनकी तस्वीरें
खो बैठेंगी
अपना वास्तविक अर्थ
रह जाएगा केवल बाकी
उनके ऊंचे दामों का इतिहास ।
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