शून्यालाप ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
अंतिम पहर जीवन कासमाप्त हुआ अब बनवास
त्याग कर बंधन सारे
चल देना है अनायास
राह नहीं कुछ चाह नहीं
समाप्त हुआ वार्तालाप ।
विलीन हो रही आस्था
टूट रहा हर विश्वास
तम ने निगल लिया सूरज
जाने कैसा है अभिशाप ।
फैला है रेत का सागर
जल रहा तन मन आज
शब्द स्तुति के सब बिसरे
छूट गया प्रभु का साथ ।
मनाया उम्र भर तुमको
माने न तुम कभी मगर
खो जाना एक शून्य में
बनाना है शून्य को वास ।
अब खोजना नहीं किसी को
न आराधना की है आस
करना है समाप्त अब
खुद से खुद का भी साथ ।
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