लिख कर ख़त ये तमाम रखे हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
लिख कर ख़त ये तमाम रखे हैं
पढ़ ले जो उसके नाम रखे हैं।
आंचल में इनको भर लेना
जो अनमोल इनाम रखे हैं।
हम अब पीना छोड़ चुके हैं
उनकी खातिर जाम रखे हैं।
जिनको खरीद सका न ज़माना
अब खुद ही बेदाम रखे हैं।
पत्थर चलने की खातिर भी
शीशे वाले मुकाम रखे हैं।
खुद ही अपनी रुसवाई के
हमने चरचे आम रखे हैं।
जिन पर बातें दिल की लिखीं हैं
ख़त वो सभी बेनाम रखे हैं।
जिनको खरीद सका न ज़माना
अब खुद ही बेदाम रखे हैं।
पत्थर चलने की खातिर भी
शीशे वाले मुकाम रखे हैं।
खुद ही अपनी रुसवाई के
हमने चरचे आम रखे हैं।
जिन पर बातें दिल की लिखीं हैं
ख़त वो सभी बेनाम रखे हैं।
जुर्म नहीं बस की जो मुहब्बत
सर पे कई इल्ज़ाम रखे हैं।
उनपे नहीं अब "तनहा" परदा
राज़ वो सब खुले-आम रखे हैं।
राज़ वो सब खुले-आम रखे हैं।
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