सितंबर 18, 2012

सभी को दास्तां अपनी बयां करना नहीं आता ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

     सभी को दास्तां अपनी बयां करना नहीं आता ( ग़ज़ल ) 

                           डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सभी को दास्तां अपनी ,  बयां करना नहीं आता
कभी आता नहीं लिखना , कभी पढ़ना नहीं आता।

बड़ी ऊंची उड़ाने लोग भरते हैं , मगर सोचें
जमीं पर आएंगे कैसे अगर गिरना नहीं आता।

कभी भी मांगने से मौत दुनिया में नहीं मिलती
हमें जीना ही पड़ता है , अगर मरना नहीं आता।

सभी से आप कहते हैं बहुत ही तेज़ है चलना
कभी उनको सहारा दो , जिन्हें चलना नहीं आता।

हमें सूली चढ़ा दो अब ,  हमारी आरज़ू है ये
यही कहना हमें है पर , हमें कहना नहीं आता।

न जाने किस तरह दुनिया ख़ुशी को ढूंढ़ लेती है
हमें सब लोग कहते हैं कि खुश रहना नहीं आता।

तमाशा बन गये "तनहा" , तमाशा देखने वाले
तमाशा मत कभी देखो , अगर बनना नहीं आता।